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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : २०२ - २०६
अर्थ- प्रथम प्रासादके उत्तर- भागमें पच्चीम योजन के आधे ( १२३ ) योजन लम्बी और इससे (६०) विस्तार वाली सुधर्म सभा स्थित है ।। २०१ ।
एव-जोयण- उच्छेहा', गाउद- गाढा सुवण्ण-रयणमई । सीए उत्तर भागे, जिण भवणं होवि तम्मेत्तं ॥ २०२॥ ९ । को २ ।
अर्थ- सुवर्ण और रत्नमयी यह सभा नौ (९) योजन ऊँची और एक गव्यूति ( १ कोस ) अवगाह सहित है । इसके उत्तर भाग में इतने ही प्रमाणसे संयुक्त जिन भवन है ।। २०२ ।।
उपपाद आदि छह सभाओं ( भवनों ) की अवस्थिति प्रदि
पण विसाए पढमं, पासादादो जिणिद-पासादा |
चेटू दि जववाद सभा, कंसण-वर रयण - जिवमई ॥२०३॥ ३५ । ३५ । यो ९ को १ ।
अर्थ- प्रथम प्रासादमे वायव्य दिशा में जिनेन्द्र भवन सदृश ( १२३ योजन लम्बी, ६१ यो० चौड़ी, ९ यो० ऊंची और १ कोस अवगाह वाली ) स्वर्ण एवं उत्तम रत्न-समूहोंसे निर्मित उपपाद सभा स्थित है ।। २०३ ॥
पुव्य-दिसाए पढमं, पासाबादी विचित-विज्णासा ।
खेट्ठव अभिसेय सभा, उनवाद - सभेहि सारिच्छा ॥ २०४ ॥
अर्थ- प्रथम प्रसाद के पूर्व में उपपाद सभाके सदृश विचित्र रचना संयुक्त अभिषेक सभा ( भवन ) स्थित है || २०४ ॥
तत्थं चि विभाए, अभिसेयसभा - सरिच्छवासादी |
होवि अलंकार-सभा, मणि- तोरणद्वार रमणिज्जा ॥ २०५ ॥
अथ - इसी दिशा-भाग में अभिषेक सभाके सदृश विस्तारादि सहित और मणिमय तोरणद्वारोंसे रमणीय अलंकार सभा ( भवन ) है ।। २०५ ।।
तस चिr विभाए, पुण्य सभा सरिस - उदय - वित्थारा ।
मंत सभा चामीयर रयणमई सुन्दर बुवारा ।।२०६ ॥
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१. द. ब. क. ज. उच्छेो ।
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