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तिलोयपण्णत्ती
[ गाया : २१३-२१८ अर्थ-उन भवनों में हजारों देवियोंसे सुशोभित, विजय नामक देव शोभायमान है और वहाँ उत्तम रत्नोंसे विभूषित शरीर वाले लक्षण एवं व्यञ्जनों सहित, ( सप्त ) धातुओंसे विहीन, व्याधिसे रहित तथा विविध प्रकारके सुखोंमें आसक्त नित्य-युवा, देव बहुत विनोद पूर्वक क्रीडा करते हैं ॥२११ २१२ ।।
सयणाणि आसणाणि, रयणमयाणि हवंति भवणेसु ।
मउवाणि णिम्मलाण, मण-णयणाणंद-जणणाणि ॥२१३॥ अर्थ-इन भवनों में मृदुल, निर्मल और मन तथा नेत्रोंको आनन्ददायक रत्नमय शय्यार्ये एवं ग्रासन विद्यमान हैं ।। २१३ ।।
प्रादिम-पासाबस्स य, बहु-मज्झे होवि कणय-रयणमयं ।
सिंहासणं विसालं, सपाद - पीढं परम - रम्मं ॥२१४॥
अर्थ-प्रथम प्रासादके बहु-मध्य-भागमें अतिशय रमणीय और पादपीठ सहित सुवर्ण एवं रस्तमय विशाल सिंहासन है ।। २१४ ।।
सिंहासणमारूढो, विजो णामेण अहिवई तत्थ ।
पुथ्व - मुहे पासादे, अत्याणं देवि लीलाए ॥२१॥ अर्थ-वहाँ पूर्व-मुख प्रासादमें सिंहासन पर प्रारूढ विजय नामक अधिपति देव लीलासे आनन्दको प्राप्त होता है ।। २१५॥
विजयदेव के परिवार का अवस्थान एवं प्रमाण तस्स य सामाणीया, घेद्वैते छस्सहस्स-परिमाणा।
उत्तर-दिसा-विभागे, विदिसाए विजय - पोढादो ॥२१६॥
अर्थ--विजयदेवके सिंहासनसे उत्तर-दिशा और विदिशामें उसके छह हजार प्रमाण सामानिक देव स्थित रहते हैं ।। २१६ ॥
बेळंति णिरुवमाओ', छस्सिय विजयस्स अग्ग-देवोत्रो।
ताणं पीढ़ा रम्मा, सिंहासण • पुव्य - दिभाए ॥२१७॥ अर्थ ---मुख्य सिहासनके पूर्व-दिशा-भागमें विजयदेवकी मनुपम छहों अग्र-देवियां स्थित रहती हैं । उनके सिंहासन रमणीय हैं ।। २१७ ।।
परियारा देवीओ, तिम्णि सहस्सा हवंति पत्तेक्कं । साहिय-पल्लं पाऊ, णिय-णिय-ठाणम्मि चेति ॥२१॥
१. ६. क. ज. रिणवमाणो।