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________________ गाथा : २१९-२२३ ] पंचमी महाहियारो प्रयं-इनसे प्रत्येक अग्र-देवीको परिवार-देवियाँ तीन हजार हैं, जिनकी आयु एक पल्यसे अधिक होती है । ये परिवार देवियाँ अपने-अपने स्थानमें स्थित रहती हैं ॥ २१८ ।। बारस देव-सहस्सा, बाहिर-परिसाए विजयदेवस्स । पइरिदि-दिसाए ताणं, पीढाणि सामि - पोढादो ।।२१।। १२००० । अर्थ-विजय देवकी बाह्य परिषद में बारह हजार ( १२००० ) देव हैं। उनके सिंहासन, स्वामीके सिंहासनसे नैऋत्य-दिशा-भागमें स्थित हैं ।। २१९ ।। देयवस-सहस्साणि, मझिम-परिसाए होंति विजयस्स । दक्खिए-दिसा-विभागे, तप्पीढा णाह - पीढादो ॥२२०॥ अर्थ-विजयदेवकी मध्यम परिषद्में दस हजार (१००००) देव होते हैं । उनके सिंहासन, स्वामीके सिंहासनसे दक्षिण-दिशा-भागमें स्थित रहते हैं ।। २२० ।। अम्भंतर - परिसाए, अट्ट सहस्साणि विजयदेवस्स । अग्गि - दिसाए होंति हु, तप्पीढा रगाह - पीढादो ॥२२॥ 5०००। अर्थ-विजयदेवकी अभ्यन्तर परिषद्में जो आठ हजार ( ८००० ) देव रहते हैं उनके सिंहासन स्वामीके सिंहासनसे अग्नि-दिशामें स्थित रहते हैं ।। २२१ ।। सेणा - महत्तराणं, ससाणं होंति दिन्च - पोढाणि । सिंहासण - पच्छिमबो, वर - कंचण-रयरग-रइवाइं ॥२२२॥ अर्थ-मात सेना-महत्तरोंके सत्तम स्वर्ण एवं रत्नोंसे रचित दिव्य पीठ मुख्य सिंहासन के पश्चिममें होते हैं ।। २२२ ।। तणुरक्खा अट्ठारस - सहस्स - संखा हवंति पत्तेक्कं । ताणं च उसु विसासु, चेढ़ते भव - पीढाणि ॥२२३॥ १८००० । १८००० । १८००० । १८००० । अर्थ-विजयदेवके शरीर-रक्षक देवोंके भद्रपीठ चारों दिशाओंमेंसे प्रत्येक दिशामें अठारह हजार ( पूर्वमें १८०००, दक्षिणमें १८०००, पश्चिममें १८००० और उत्तरमें १८०००) प्रमाण स्थित हैं ।। २२३ ।।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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