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तिलोयपण्णत्ती
अट्ठमो महाहियारो
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मङ्गलाचरण
कम्म- कलंक - विमुक्कं केवलणाणे हि बिट्ट-सयलट्ठ |
रामिकण श्रणंत-जिणं, भणामि सुरलोय-पर्णाति ॥ १॥
अर्थ- कर्मरूपी कलङ्कसे रहित, केवलज्ञान में सम्पूर्ण पदार्थोंको देखने वाले अनन्तनाथ
जिनको नमस्कार कर में सुरलोक-प्रज्ञप्तिका कथन करता हूँ ॥१॥
इक्कीस अन्तराषिकारोंका निर्देश
सुरलोय - निवास - खिदि, विष्णासो भेव णाम सीमाश्रो । संखा दविभूवी, आऊ उत्पत्ति मरण अंतरयं ॥२॥ आहारो उस्तासो, उच्छेहो तह य देव लोयम्मि । आउग बंधण भावो देवा लोयंतियाण तहा ॥३॥ गुणठाणादि-सरूवं, दंसण गहणस्स कारणं विविहं । आगमण मोहिणाणं, सुराण' संखं च सतीश्रो ॥४॥ जोणी इदि इगिवीस, अहियारा बिमल बोह-जणणीए । जिरण - मुहकमल - विणिग्गय- सुर- जग पण्णत्ति-णामाए ||५||
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१ द. सुमो, ब. क. ज. उ. सुराउ ।
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