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________________ ४४२ ] तिलोय पण्णत्ती [ गाया: ६२३-६२४ अर्थ - आहार, उच्छ्वास, उत्सेध, अवधिज्ञान, शक्ति, एक समय में जीवोंकी उत्पत्ति एवं मरण, आयुके बन्धक भाव, सम्यग्दर्शन ग्रहणके विविध कारण और गुणस्थानादिका वर्णन भावनलोकके सदृश कहना चाहिए ।।६२१-६२२ । शरीर के उत्सेध आदिका निर्देश वरि य जोइसियाणं, उच्छेहो सत्त-खंड- परिमाणं । ओही असंख-गुणिर्व, सेसाओ होंति जह जोगं ॥ ६२३ ।। अर्थ - विशेष यह है कि ज्योतिषी देवोंके शरीरकी ऊँचाई सास धनुष प्रमाण और अवधिज्ञानका विषय असंख्यातगुरगा है ।। ६२३।। अधिकारान्त मंगलाचरण ईद-सवगणिताणं प्रणत-सुह णाण विरिय वंसरणयं । भव्य कुमुद्देषक चंदं, विमल जिणिदं णमस्सामि ||६२४|| · - - एवमाइरिय-परंपरा-गय-तिलोय पण्णत्तीए जोइ सिय- लोय-सरूव णिरुवण-पण्णत्ती णाम सतमो महाहियारो समत्तो ॥ अर्थ--- जिनके चरणों में सहस्रों इन्द्रोंने नमस्कार किया है और जो अनन्त सुख, ज्ञान, वीर्य एवं दर्शनसे संयुक्त तथा भव्यजनरूपी कुमुद्दोंको विकसित करने के लिए अद्वितीय चन्द्रस्वरूप हैं ऐसे विमलनाथ जिनेन्द्रको में नमस्कार करता हूँ ||६२४॥ इसप्रकार आचार्य परम्परासे प्राप्त हुई त्रिलोक प्रज्ञप्ति में ज्योतिर्लोक-स्वरूप-निरूपण प्रज्ञप्ति नामक सातवाँ महाधिकार समाप्त हुआ। ! 7 J ! I
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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