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गाथा : ९९-१०३ ]
पंचमी महाहियारो
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श्रर्य - नाना प्रकारके वाहनोंपर आरूढ़ नाना प्रकार की विभूति सहित अनेक फल एवं पुष्पमालाएं हाथोंमें लिये हुए ज्योतिषी, व्यन्तर तथा भवनवासी देव भी भक्ति से संयुक्त होकर यहाँ आते हैं ।। ९८ ।।
श्रागच्छय बीसर यर-दीव - जिणिद- दिव्व' - भवणाई ।
बहुविह बुदि मुहल मुहा, पदाहिणाहि पकुच्वंति ॥६॥
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अर्थ - इस प्रकार ये देव नन्दीश्वर द्वीपके दिव्य जिनेन्द्र भवनों में आकर नाना प्रकारकी स्तुतियोंसे वाचाल मुख होते हुए प्रदक्षिणाएँ करते हैं ।। ९९ ।।
पूजन प्रारम्भ करते समय दिशाओंका विभाजन
पुव्वाए कप्पवासी, भवणसुरा दविखरणाए वंतरया' । पच्छिम - दिसाए तेसु, जोइसिया उत्तर
जब मटमी |
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दिसाए ॥१००॥
णिय. जिय- विभूदि-जोग्गं, महिमं कुव्यंति थोत्त-बहुल-मुहा । नंदोसर - जिणमंदिर जत्तासु विउल भत्ति जुदा ॥१०१॥
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अर्थ -- नन्दीश्वरद्वीपस्थ जिन मन्दिरोंकी यात्रा में प्रचुर भक्तिसे युक्त कल्पवासी देव पूर्वदिशामें, भवनवासी दक्षिण में, व्यन्तर पश्चिम में और ज्योतिषी देव उत्तर दिशा में ( स्थित होकर ) मुखसे बहुत स्तोत्रोंका उच्चारण करते हुए अपनी-अपनी विभूतिके योग्य महिमाको करते हैं ।। १०० - १०१ ।।
प्रत्येक दिशा में प्रत्येक इन्द्रकी पूजा के लिए समयका विभाजन पुरुषहे अवरण्हे, पुष्षशिसाए वि पच्छिम- णिसाए । पहराणि दोण्णि दोण्णिं, गिभर'- भती पसत्त-मरणा ॥१०२॥ कमसो पदाहिनेणं, पुणिमयं जाव श्रटुमोदु तदो । देवा विविहं पूजं जिरिंगद परिमाण कुरुवंति ॥१०३॥
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अर्थ – ये देव आसक्त चित्त होकर अष्टमीसे लेकर पूर्णिमा पर्यन्त पूर्वा, अपरा पूर्वरात्रि और पश्चिमरात्रिमें दो-दो प्रहर तक उत्तम भक्ति-पूर्वक प्रदक्षिण- क्रमसे जिनेन्द्र- प्रतिमाओं की विविध प्रकार पूजा करते हैं ।। १०२-१०३ ।।
१. ब. दव्य । २. द. वेंत रिया । ३. ब. क. ज. भरभत्तीए । ४. ६. ब. क. ज. पुणमयं