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१४२ । तिलोयपणती
[ गाथा : २१२ पुणो उद्विद-महारासि सलागाभूदं ठविय अवरेगमुट्टिद'-महारासि विरलिदूण उद्विद-महारासि-पमारणं दादूण वग्गिद-संवग्गिदं करिय सलागा-रासीदो एग-रूयमवणेयध्वं । ताहे चत्तारि वि असखेज्जा लोगा । एवमेदेण कमेण वन्य जाय तदियवारं दृविद-सलागारासो समत्तो त्ति । ताहे चत्तारि वि असंखेज्जा लोगा।
अर्थ-पुनः उत्पन्न हुई महाराशिको शलाकारूपसे स्थापित वारके उसी उत्पन्न महाराशि का बिरलन करके उत्पन्न महाराशि प्रमाणको एक-एक रूपके प्रति देकर और बगित-संगित करके शलाकाराशि में से एक कम करना चाहिए । इससमय चारों राशियाँ असंख्यात-लोकप्रमाग रहती हैं। इसप्रकार तीसरीवार स्थापित शलाका-राशिके समाप्त होने तक इसी क्रमसे ले जाना चाहिए । तब चारों हो रासिया असंख्यात-लोक-प्रमाण रहती हैं।
तेजकायिक जीव राशि और उनकी अन्योन्य-गुणकार-शलाकाओंका प्रमाण
पणो उहिद-महारासि तिप्पडि-रासि कादूण तत्थेग सलागाभूदं ठविय प्रणेगरासि विरलिदूण तत्थ एक्केक्क-रूवस्स एग-रासि-पमाणं दादूण बग्गिव-संवग्गिवं करिय सलागा-रासीदो एग रूबमवणेयन्वं । एवं पुणो पुणो करिय णेदव्यं जाव" अदिक्कतअण्णोण-गुणगार-सलागाहिऊण-घउत्थयार-दृविद-अण्णोरण-गुणगार-सलागारासी समत्तो त्ति । ताहे तेउकाइय-रासी उठ्ठिदो हवदि = रि । तस्स गुणगार-सलागा चउत्थवारठविद-सलागा-रासि-पमाणं होदि ॥६॥'
अर्थ- पनः इस उत्पन्न महाराशिकी तीन महाराशियाँ करके उनमें से एकको शलाकारूपसे स्थापित कर और दुसरी एक राशिका विरलन करके उसमेंसे एक-एक-रूपके प्रति एक राशिको देकर और वगित-संगित करके शलाका राशिमेंसे एक रूप कम करना चाहिए । इसप्रकार पुन: पुनः करके जब तक अतिक्रान्त अन्योन्य-गुणकार-शलाकामोसे रहित चतुर्थवार स्थापित अन्योन्य-गुणकारशलाका-राशि समाप्त न हो जावे तब तक इसी क्रमसे ले जाना चाहिए। तब तेजस्काथिक-राशि उत्पन्न होती है जो असंख्यात-घनलोक-प्रमाण है । ( यहाँ घनलोककी संदृष्टि = तथा असंख्यात की संडष्टि रि है।) उस तेजस्कायिक राशिकी अन्योन्य-गुणकार-शलाकाएं चतुर्थवार स्थापित शलाका-राशिके सदृश होती हैं।
(इस राशिके असंन्यातको संदृष्टि ६ है । ) ----
१६. क. ज. वगेतमुदि , द. वेत्तागमुठ्ठिद ! २. द. समागं । ३ ६. ब. णाबन्दं । ४. द. ब. क. ज. ताटे । ५. दब.क. ज. जाम। ६ द.ब.क.ज. ताद। ७.द. ब. तेउकायपरासी। द
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