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गाथा : २८२ ] पंचमो महाहियारो
[ १४१ तीन राशियों ( (१) उस समय उत्पन्न हुई महाराशि (२) उसकी वर्गशलाकाओं और (३) अर्धच्छेदशलाकाओं) का प्रमाण असंख्यातलोक होता है ।।
पुणो उठ्ठिद - महारासि - विरलिदूण तं चेव सलागा-भूद ठविय विरलिय एक्केवक-रूवस्स उप्पण्ण-महारासि-पमाणं दादूण वग्गिव-संवग्गिदं करिय' सलागारासीदो एग-रूवमयणेयच्वं । ताहे अण्णोणणगुणगार-सलागा लोगो स्वाहिओ, सेस-तिगमसंखेज्जा लोगा ॥
अर्थ---पुन: उत्पन्न हुई इस महाराशिका विरलन करके इसे ही शलाकारूपसे स्थापित करके विरलित राशिके एक-एक रूपके प्रति उत्पन्न महाराशि-प्रमाणको देकर और वगित-संगित करके शलाकाराशिमेंसे एक रूप कम करना चाहिए। तब अन्योन्यगुणकार-शलाकाएं एक अधिक लोवा-प्रमाण और शेष तीनों राशियाँ असंख्यात-लोक-प्रमाण ही रहती हैं।
पुणो उप्पण्णरासि विरलिय रूवं पडि उप्पण्णरासिमेव दादूण वग्गिद-संवग्गिवं करिय सलागा-रासोदो अणेग रूवमवणेयन्वं । ताहे अपणोष्ण-गुणगार-सलागा लोगो दुरूवाहिनो, सेस-तिगमसंखेज्जा लोगा । एवमेदेण कमेण दुरूयूणुक्कस्स-संखेज्जलोग-मेत्त लोग-सलागासु दुरूवाहिय लोगम्मि पविट्ठासु चत्तारि वि असंखेज्जा-लोगा हवंति । एवं णेदव्वं जाव विदियवार-ट्टविद-सलागारासी समत्तो ति । ताहे चत्तारि वि असंखेज्जा लोगा।
अर्थ - पुनः उत्पन्न राशिका विरलन करके एक-एक रूपकं प्रति उत्पन्न राशिको ही देकर और वगित-संगित करके शलाकाराशिमेंसे अन्य एक रूप कम करना चाहिए । तब अन्योन्य-गुणकारशलाकाएं दो रूप अधिक लोक-प्रमाण और शेष तीनों राशियां असंख्यात लोक-प्रमाण ही रहती हैं । इसप्रकार इस क्रमसे दो कम उत्कृष्ट-संख्यातलोक-प्रमाण अन्योन्य-गुणकार-शलाकारोंके दो अधिक लोक-प्रमाण अन्योन्य-गुणकार-शलाकाओंमें प्रविष्ट होनेपर चारों ही राशियां असंख्यात लोकप्रमाण हो जाती हैं। इसप्रकार जब तक दूसरीबार स्थापित शलाकाराशि समाप्त न हो जावे तब तक इसी क्रमसे करना चाहिए । तब भी चारों राशियाँ असंख्यात - लोक - प्रमाण होती हैं।
१ द. ब. क. ज. वग्गिद करिय । २. द. ब. क. ज. दुरूवाणुक्कस्स । ३. द.ब. वि सियसंखेज्जा । ४. द. ब. क. ज. पषिट्ठो ।