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गाथा : ३३८-३४१ ] अट्ठमो महाहियारो
[ ५२५ २६ लाख विमानोंमें संमिश्र अर्थात् देव और देवियाँ दोनों उत्पन्न होते हैं । इसीप्रकार ईशान कल्पके २८ लाख विमानों में से ४००००० विमानोंमें मात्र देवांगनाओंकी और शेष २४ लाख विमानोंमें दोनों की उत्पत्ति होती है।
सौधर्मादि कल्पोंमें प्रवीचारका विधानसोहम्मीसाणेस, देवा सम्वे वि काय - पडिवारा ।
होति हु सणकुमार-प्पहुांव-दुगे फास • पांडेचारा ॥३३८।। अर्थ-सौधर्म और ईशान कल्पों में सब ही देव काय-प्रवीचार सहित और सनत्कुमार प्रादि दो ( सनत्कुमार-माहेन्द्र ) कल्पोंमें स्पर्श प्रयोचार युक्त होते हैं ।।३३८।।
बम्हा हिवाण-कप्पे, लंतब-कप्पम्मि रुव - पडिचारा।
कप्पम्मि महासुक्के, सहस्सयारम्मि सद्द-पडिचारा ॥३३६॥
प्रर्य -- ब्रह्म नामक कल्पमें तथा लान्तव कल्पमें रूप प्रवीचार युक्त प्रौर महाशुक्र एवं सहस्रार कल्पमें शब्द-प्रवीचार युक्त होते हैं ।।३३६।।
प्राणव-पाणव-पारण-अच्चुद-कप्पेसु चित्त-पडिचारा ।
एत्तो सविदाणं, आवास - विहि पल्वेमो ॥३४०॥
प्रर्थ-आनत, प्रागत, आरण और अच्युत, इन कल्पों में देव चित्त-प्रवीचार युक्त होते हैं। यहाँसे आगे सब इन्द्रोंको आवास-विधि कहते हैं ।।३४०1।।
विशेषार्थ-काम सेवन को प्रवीचार कहते हैं । सौधर्मशान कल्पोंके देव अपनी देवांगनाओं के साथ मनुष्योंके सदृश कामसेवन करके अपनी इच्छा शान्त करते हैं । सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पोंके देव देवांगनाओंके स्पर्श मात्रसे अपनी काम पीड़ा शान्त करते हैं । ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर और लान्तव-कापिष्ठ कल्पोंके देव देवांगनाओंके रूपावलोकन मात्रसे अपनी काम पीड़ा शान्त करते हैं । इसीप्रकार महाशुक्र और सहस्रार कल्पोंके देव देवांगना नोंके गीतादि शब्दों को सुनकर तथा आनतादि चार कल्पोंके देव चित्तमें देवांगनाका विचार करते हो काम वेदनासे रहित हो जाते हैं । इससे ऊपरके सब देव प्रबोचार रहित हैं।
इन्द्रों के निवास स्थानोंका निर्देश - पढमादु एक्कतीसे, पभ-णाम-जवस्स दक्षिणोलीए ।
बत्तीस - सेटिबद्ध, प्रहारसमम्मि चेटुदे सक्को ।।३४१॥ अर्थ-प्रथमसे इकतीस प्रभ-नामक इन्द्रकको दक्षिण श्रेणीमें बत्तीस श्रेणीबद्धोंमेंसे अठारहवें श्रेणीबद्ध विमानमें सौधर्म इन्द्र स्थित है ।।३४१॥