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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ४२२-४२४ अर्थ--यह उपर्युक्त आतप तथा तिमिरक्षोत्रफल एक सूर्य के निमित्तसे है। दोनों सूर्योके रहने पर इसे पूर्व-प्रमाणसे दुगुना जानना चाहिए ॥४२१॥
ऊर्च और अधःस्थानोंमें सूर्योके आसप क्षेत्रका प्रमाण
अद्वारस चेव सया, ताय - खेत्तं तु हेढदो तववि । सम्वसि सूराणं, सयमेक्कं उपरि तावं तु ॥४२२॥
१० । १००। अर्थ-सब सूर्योके नीचे एक हजार आठ सौ योजन प्रमाण और ऊपर एक सौ योजन प्रमाण ताप-क्षेत्र तपता है ।।४२२॥
विशेषार्य-सब सूर्य-बिम्योंसे चित्रा पृथिवी ८०० योजन नीचे है और चित्रा पृथिवीकी मोटाई १००० योजन है अतः सूर्योका प्राताप नीचेकी ओर ( १००० +८००) १८०० योजन पर्यन्त फैलता है।
सूर्य बिम्बोंसे ऊपर १०० योजन पर्यन्त ज्योति-र्लोक है अतः सूर्योका आताप ऊपरकी ओर १०० योजन पर्यन्त फैलता है।
सूर्योके उदय-अस्तके विवेचनका निर्देशएत्तो विवायराणं, उदयत्थमरणेसु जाणि स्वाणि ।
ताई परम • गुरूणं, उवएसेणं परवैमो ॥४२३॥ प्रपं-अब सूर्योके उदय एवं अस्त होनेमें जो स्वरूप होते हैं । परम गुरुपोंके उपदेशानुसार उनका प्ररूपण करता हूं ॥४२३।।
जीवा और धनुषकी कृति प्राप्त करनेकी विधिबाग-विहीणे वासे, चउगुण-सर-ताडिवम्मि जीव-कदी।
इसु - बग्गो छग्गुणिवो, तीय जुदो होवि चाव - कदी ।।४२४॥ अर्थ--बाण रहित विस्तारको चौगुणे बाण-प्रमाणसे गुणा करनेपर जीवकी कृति होती है। बाणके वर्गको छहसे गुणा करनेपर जो राशि प्राप्त हो उसे उपर्युक्त जीवाकी कृतिमें मिला देनेसे धनुषकी कृति होती है ।।४२४।।