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________________ ३५८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ४२२-४२४ अर्थ--यह उपर्युक्त आतप तथा तिमिरक्षोत्रफल एक सूर्य के निमित्तसे है। दोनों सूर्योके रहने पर इसे पूर्व-प्रमाणसे दुगुना जानना चाहिए ॥४२१॥ ऊर्च और अधःस्थानोंमें सूर्योके आसप क्षेत्रका प्रमाण अद्वारस चेव सया, ताय - खेत्तं तु हेढदो तववि । सम्वसि सूराणं, सयमेक्कं उपरि तावं तु ॥४२२॥ १० । १००। अर्थ-सब सूर्योके नीचे एक हजार आठ सौ योजन प्रमाण और ऊपर एक सौ योजन प्रमाण ताप-क्षेत्र तपता है ।।४२२॥ विशेषार्य-सब सूर्य-बिम्योंसे चित्रा पृथिवी ८०० योजन नीचे है और चित्रा पृथिवीकी मोटाई १००० योजन है अतः सूर्योका प्राताप नीचेकी ओर ( १००० +८००) १८०० योजन पर्यन्त फैलता है। सूर्य बिम्बोंसे ऊपर १०० योजन पर्यन्त ज्योति-र्लोक है अतः सूर्योका आताप ऊपरकी ओर १०० योजन पर्यन्त फैलता है। सूर्योके उदय-अस्तके विवेचनका निर्देशएत्तो विवायराणं, उदयत्थमरणेसु जाणि स्वाणि । ताई परम • गुरूणं, उवएसेणं परवैमो ॥४२३॥ प्रपं-अब सूर्योके उदय एवं अस्त होनेमें जो स्वरूप होते हैं । परम गुरुपोंके उपदेशानुसार उनका प्ररूपण करता हूं ॥४२३।। जीवा और धनुषकी कृति प्राप्त करनेकी विधिबाग-विहीणे वासे, चउगुण-सर-ताडिवम्मि जीव-कदी। इसु - बग्गो छग्गुणिवो, तीय जुदो होवि चाव - कदी ।।४२४॥ अर्थ--बाण रहित विस्तारको चौगुणे बाण-प्रमाणसे गुणा करनेपर जीवकी कृति होती है। बाणके वर्गको छहसे गुणा करनेपर जो राशि प्राप्त हो उसे उपर्युक्त जीवाकी कृतिमें मिला देनेसे धनुषकी कृति होती है ।।४२४।।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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