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रानी महाहिवारो
उवरिम्मि गोलगिरिरणो, ते परिमाणादु पढम-मम्मि । एराववम्मि चक्की, इवर दिणेसं ण देवखति ॥४५० ॥
गाथा : ५२३-४५४
अर्थ - ऐरावत क्षेत्र में स्थित चक्रवर्ती नीलपर्वतके ऊपर इस प्रमारण ( ४५७४९६३ यो० ) से अधिक दूर प्रथम मार्ग स्थित दूसरे सूर्य को नहीं देखते हैं ||४५०||
दोनों सूर्य के प्रथम मार्ग से द्वितीयमार्ग में प्रविष्ट होने की दिशाएं
सिहि-पवण-विसाहितो, जंबूदीवस्स दोणि रवि-बिया । दो जोयणाणि पुरु-पुह, श्रादिम- मग्गादु बिदिय पहे ॥ ४५१||
अर्थ- जम्बूद्वीप के दोनों सूर्य-बिम्ब आग्नेय तथा वायव्य दिशासे पृथक्-पृथक् दो-दो योजन लांघकर प्रथम मार्गेसे द्वितीय मार्ग ( पथ ) में प्रवेश करते हैं ।। ४५१ ।।
सूर्यके प्रथम और बाह्य मार्गमें स्थित रहते दिन
रात्रिका प्रमाण
संघंता' प्रवाणं ताघो पुताई,
भरहेरावद खिवीसु पविसंति । रसी दिवसाणि जायंते ||४५२ ॥
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अर्थ - जिस समय दोनों सूर्य प्रथममार्गमें प्रवेश करते हुए क्रमशः भरत और ऐरावत क्षेत्र में प्रविष्ट होते हैं, उसी समय पूर्वोक्त ( १८ मुहूर्तका दिन और १२ मुहूर्तकी रात्रि ) दिन-रात्रिय होती हैं ||४५२ ॥
एवं सव्व - पहेसु, उदयत्थमयाणि ताणि णावणं । पडिवोहि दिवस - णिसा, बाहिर- मग्गंत माणेज्जं ॥ ४५३ ॥
अर्थ – इसप्रकार सर्व पथोंमें उदय एवं अस्तगमनोंको जानकर सूर्यके बाह्य मार्ग में स्थित प्रत्येक वीथी में दिन और रात्रिका प्रमाए। ज्ञात कर लेना चाहिए ।। ४५३ ।।
सव-परिहासु बाहिर भग्ग-विदे विवहरणाहवियम्मि । दिण रतीओ बारस, अट्टरस मुहुत्तमेत्ताओ ।। ४५४ ।।
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अर्थ – सूर्य-बिम्बके बाह्य पथमें स्थित होनेपर सर्वे परिधियों में बारह मुहूर्त प्रमाण दिन और अठारह मुहूर्त प्रमाण रात्रि होती है ।। ४५४ ॥
१. ब. लंघंतकाले । २ द. ब. ममात्थमाज्ज ।