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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा । ४४५-४४६
होति अवज्झादी णय-ठाणेसु पुन्व-रसि-अवरणहं ।
पुरवत्त - रयरणसंचय, पुरावि-णव-ठाण-सारिश्चछा ॥४४५॥ प्रर्थ - अवध्य आदिक नौ स्थानों में पूर्वोक्त रत्नसंचय पुरादिक नौ स्थानोंके सदृश ही पूर्व रात्रि एवं अपराल्लुकाल होते हैं ।।४४५।।
भरत-ऐरावतमें मध्याह्न होनेपर विदेहमें रात्रिका प्रमाणकिचूण-छम्मुत्ता, रत्ती जा पुरिगिणी - रणयरे ।
तह होदि दोबसोके, भरहेरावद-खिदोसु मज्झण्णे ।।४४६॥
अर्थ-भरत और ऐरावत क्षेत्र में मध्याह्न होनेपर जिसप्रकार पुण्डरी किणी नगरमें कुछ कम छह मुहत सांय होती है, तो कार बीतशोक नगरी में भी कुछ कम छह मुहूर्त प्रमाण रात्रि होती है ।।४४६।।
नीलपर्वत पर सूर्य का उदय अस्तताहे जिसह-गिरिदे, उपयत्थमणारिण होंति भाणुस्स ।
गोल - गिरिदेसु तहा, एक्क - खणे दोसु पासेसु॥४४७॥ अर्य-उससमय जिसप्रकार निषधपर्वत पर सूर्यका उदय एवं अस्तगमन होता है, उसीप्रकार एक ही क्षणमें नील-पर्वतके ऊपर भी दोनों पार्श्वभागों में (द्वितीय) सूर्यका उदय एवं अस्तगमन होता है ।।४४७॥
भरत-ऐरावत क्षेत्र स्थित चत्रवतियों द्वारा अदृश्यमान सूर्य का प्रमाण
पच-सहस्सा [तह परण-सयाणि चउहतरीय अदिरेगो। तेत्तीस - बे - सयंसा, हारो सीबी - जुदा ति-सया ॥४४॥
५५७४ । ३।। एत्तियमेत्तादु परं उरि णिसहस्स पढम - मग्गम्मि ।
भरहक्खेत्ते चक्की, विणयर • बिबं ण देवखंति ।।४४६॥ अर्थ-भरतक्षेत्रमें चक्रवर्ती पाँच हजार पाँच सौ चौहत्तर योजन और एक योजनके तीन सौ अस्सी भागोंमेंसे दो सौ त तीस भाग अधिक, इतने ( ५५७४३३॥ यो०) से प्रागे निषधपर्वतके ऊपर प्रथम मार्ग में सूर्य-बिम्बको नहीं देखते हैं ॥४४८-४४९।।