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गाथा : ३५३-३५७ ]
अट्टम महाहियारो
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छज्जुगल - सेस एसु अट्ठारसमम्मि सेटिवद्ध सु । दो-ही-कर्म बविखण-उत्तर भागेसु होंति देविदा ||३५३||
पाठान्तरम् ।
अर्थ- छह युगलों और शेष कल्पोंमें यथाक्रमसे प्रथम युगल में अपने अन्तिम इन्द्रक से सम्बद्ध अठारहवें श्र ेणीबद्ध में तथा इससे आगे दो होन क्रमसे अर्थात् सोलहवें, चौदहवें, बारहवें, दसवें, आठवें और छठे श्रीबद्ध में दक्षिण भाग में दक्षिण इन्द्र और उत्तर भागमें उत्तर इन्द्र स्थित हैं ।। ३५३ ।।
पाठान्तर ।
श्रर्याि एवं उनके मध्य स्थित नगरोंके प्रमाण आदिका निर्देश -
रयरण गियरमया ।। ३५४ ।।
एवाणं सेढीनो, 'पत्तेक्कम संख जोयण पमाणा । रवि मंडल - सम-बट्टा, माणावर अर्थ- सूर्यमण्डल के सदृश गोल और नाना उत्तम रत्नसमूहोंसे निर्मित इनकी श्र ेणियोंमेंसे प्रत्येक (श्रेणी) असंख्यात योजन प्रमाण है ।। ३५४।।
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तेसु तड-बेबीओ कणयमया होंति विविह-य-माला ।
चरियट्टालय चारू, वर तोरण सुंदर दुवारा ।।३५५१८
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इन्द्र आदिके नगर हैं ।। ३५७ ।।
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१. व. ब. क. ठ. पत्त क्रमसंखेज्ज ।
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अर्थ – उनमें मार्गों एवं अट्टालिकाओंसे सुन्दर, उत्तम तोरणोंसे युक्त सुन्दर द्वारोंवाली और विविध ध्वजा-समूहोंसे युक्त स्वर्णमय तट- वे दियाँ हैं ।। ३५५।।
दावरिम- तलेस, जिरणभवणेहि विचित्त हवेहि । उत्तुंग तोरणेह, सविसेसं सोह्माणाओ ।। ३५६ ।।
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अर्थ-द्वारोंके उपरिम तलोंपर उन्नत तोरणों सहित और अद्भुत रूपवाले जिन भवनों से वे वेदिय विशेष शोभायमान हैं ।। ३५६ ।।
एवं पण्णिदाणं, सेढोणं होंति ताण बहुमभे ।
णिय- णिय-नाम- जुदाई, सक्क प्पहृवीण गयराई ॥ ३५७ ।।
पर्थ - इसप्रकार वर्णित उन श्र ेणियोंके बहुमध्य भाग में अपने-अपने नामसे युक्त सौधर्म