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________________ ५३० ] तिलोय पण्णत्ती चुलसीबी-सोदीग्रो बाहत्तरि सत्तरीश्रो सट्ठी य । पण्णास चाललीसा, वीस सहस्साणि जोयणा ||३५८ || ६४०००।८०००० | ७२००० | ७०००० । ६०००० | ५०००० । ४०००० ३०००० | २०००० । सोहम्मदादीणं, प्रट्ठ सुरिवाण सेस इंदाणं । रायंगणस्स वासो, पत्तेक्कं एस णावव्यो ||३५६। अर्थ-सोधर्मादि आठ सुरेन्द्रों और शेष इन्द्रोंमेंसे प्रत्येकके राजाङ्गणका यह विस्तार क्रमश: चौरासी हजार ( ८४०००) अस्सी हजार ( ८०००० ) बहत्तर हजार ( ७२००० ), सत्तर हजार ( ७००००), साठ हजार ( ६००००), पचास हजार ( ५००००), चालीस हजार ( ४०००० ), तीस हजार (३०००० ) और बीस हजार ( २०००० ) जानना चाहिए ।।३५८-३५६ ।। रायंगण भूमीए, समंतदो दिव्य-कणय-तड-वेदी । चरियट्टालय चारू, णवंत विचित्त रयणमाला || ३६० ।। [ गाथा : ३५८-३६२ · अर्थ – राजाङ्गण भूमिके चारों ओर दिव्य सुवर्णमय तट-वेदी है। यह वेदी मार्ग एवं अट्टालिकाभोंसे सुन्दर तथा नाचती हुई विचित्र रत्नमालाओं से युक्त है || ३६० ॥ प्राकारका उत्सेध प्रादि सक्कदुगे तिणि-सया, श्रड्ढाइज्जा सयाणि उयरि - दुगे । बम्हवे दोणि सया, आदिम पायार उच्छेो ॥ ३६१ ॥ 4 - | ३०० | २५० । २०० । अर्थ - शत्र- द्विक अर्थात् सौधर्म और ईशान इन्द्र के श्रादिम प्राकारका उत्सेच तीन सौ (३००), उपरि-द्विक अर्थात् सानत्कुमार और माहेन्द्र के आदिम प्राकारका उत्सेध अढ़ाई सौ ( २५० ) तथा द्रादिम प्राकारका उत्सेध दो सौ { २०० ) योजन है ।। ३६१ ॥ पण्णास जुदेवक-सया, बीसम्भहियं सयं सयं सुद्ध । सो बिद-तिए, सीदि पत्तेक्क- आणदाविम्मि || ३६२ || १५० | १२० । १०० । ८० । श्रर्थ -- लान्तवेन्द्रादिक तीन ( लान्तवेन्द्र, महाशुद्र और सहसारेन्द्र ) के आदिम प्राकारोंका उत्सेध प्रमाण क्रमश: एक सौ पचास ( १५० ), एक सौ बीस ( १२० ) और केवल सो ( १०० ) योजन है । प्रत्येक आनतेन्द्रादिके राजांगणका उत्सेध ग्रस्सी ( ८० ) योजन प्रमाण है ।। ३६२ ।।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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