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तिलोय पण्णत्ती
चुलसीबी-सोदीग्रो बाहत्तरि सत्तरीश्रो सट्ठी य । पण्णास चाललीसा, वीस सहस्साणि जोयणा ||३५८ ||
६४०००।८०००० | ७२००० | ७०००० । ६०००० | ५०००० । ४०००० ३०००० | २०००० ।
सोहम्मदादीणं, प्रट्ठ सुरिवाण सेस इंदाणं । रायंगणस्स वासो, पत्तेक्कं एस णावव्यो ||३५६।
अर्थ-सोधर्मादि आठ सुरेन्द्रों और शेष इन्द्रोंमेंसे प्रत्येकके राजाङ्गणका यह विस्तार क्रमश: चौरासी हजार ( ८४०००) अस्सी हजार ( ८०००० ) बहत्तर हजार ( ७२००० ), सत्तर हजार ( ७००००), साठ हजार ( ६००००), पचास हजार ( ५००००), चालीस हजार ( ४०००० ), तीस हजार (३०००० ) और बीस हजार ( २०००० ) जानना चाहिए ।।३५८-३५६ ।। रायंगण भूमीए, समंतदो दिव्य-कणय-तड-वेदी ।
चरियट्टालय चारू, णवंत विचित्त रयणमाला || ३६० ।।
[ गाथा : ३५८-३६२
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अर्थ – राजाङ्गण भूमिके चारों ओर दिव्य सुवर्णमय तट-वेदी है। यह वेदी मार्ग एवं अट्टालिकाभोंसे सुन्दर तथा नाचती हुई विचित्र रत्नमालाओं से युक्त है || ३६० ॥ प्राकारका उत्सेध प्रादि
सक्कदुगे तिणि-सया, श्रड्ढाइज्जा सयाणि उयरि - दुगे ।
बम्हवे दोणि सया, आदिम पायार उच्छेो ॥ ३६१ ॥
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३०० | २५० । २०० ।
अर्थ - शत्र- द्विक अर्थात् सौधर्म और ईशान इन्द्र के श्रादिम प्राकारका उत्सेच तीन सौ (३००), उपरि-द्विक अर्थात् सानत्कुमार और माहेन्द्र के आदिम प्राकारका उत्सेध अढ़ाई सौ ( २५० ) तथा द्रादिम प्राकारका उत्सेध दो सौ { २०० ) योजन है ।। ३६१ ॥
पण्णास जुदेवक-सया, बीसम्भहियं सयं सयं सुद्ध ।
सो बिद-तिए, सीदि पत्तेक्क- आणदाविम्मि || ३६२ ||
१५० | १२० । १०० । ८० ।
श्रर्थ -- लान्तवेन्द्रादिक तीन ( लान्तवेन्द्र, महाशुद्र और सहसारेन्द्र ) के आदिम प्राकारोंका उत्सेध प्रमाण क्रमश: एक सौ पचास ( १५० ), एक सौ बीस ( १२० ) और केवल सो ( १०० ) योजन है । प्रत्येक आनतेन्द्रादिके राजांगणका उत्सेध ग्रस्सी ( ८० ) योजन प्रमाण है ।। ३६२ ।।