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________________ ४२२ } तिलोयपण्पत्ती [ गाथा : ६१८ अर्थ यहाँ पर चय प्रत्येक वलयके प्रत्येक स्थानमें चार-चार उत्तर क्रमसे स्वयंभरमण समुद्र पर्यन्त चला गया है । विशेष इतना है कि द्वीप अथवा समुद्रके प्रथम वलय पर जहाँ राशि दुगुनी होती है, उसे छोड़कर सर्वत्र वृद्धिका क्रम चार-चार जानना चाहिए। विशेषार्थ- जैसे-मानुपोत्तर पर्वतसे बाहर जो पुष्कराध द्वीप है, उसके प्रथम बलयमें चन्द्र-सूर्यग बंजमा १४४..:४४ है। उसने बारे सो आदि वलयोंमें चार-चारको वृद्धि होते हुए क्रमशः १४८, १५२, १५६, १६०, १६४, १६८, १७२. १७६, १८० .............. हैं । इसप्रकार यह वृद्धि पुष्कराध द्वीपके अन्तिम बलय पर्यन्त होगी और इस द्वीपके आगे पुष्करवरसमुद्रके प्रथम वलयमें राशि दुगुनी अर्थात् ( १४४४ २= ) २८८ हो जायगी । यह राशि प्रत्येक द्वीप-समुद्रके प्रथम यलयमें दुगुनी होती है इसीलिए चय-वृद्धिके क्रममें इस प्रथम क्लयको छोड़ दिया गया है । मानुषोनर पर्वत के प्रागे प्रथम वलयमें चन्द्र-सूर्यों के अन्तरालका प्रमाण माणसुत्तरगिरिदादो पण्णास-सहस्स-जोयणागि गंतरण पठम-वलयम्मि ठिदचंदाइच्चाणं विच्चालं सत्तेताल-सहस्स-णव-सय-चोइस-जोयणाणि पुणो छहरि-जादसवंसा तेसोदि-जुब-एक्क-सय-रूवेहि भजिवमेतं होदि । तं घेवं ४७९१४ । । अर्थ- मानुषोतर पर्वतसे आगे पचास हजार योजन जाकर प्रथम-वलयमें चन्द्र-सूर्योका अन्तराल सैतालीस हजार नौ सौ चौदह योजन और एक सौ तेरासीसे भाजित एक सौ छयत्तर भाग प्रमाण अधिक है । वह यह है-४७९१४२६३ । विशेषार्य-मानुषोत्तरपर्वतसे ५० हजार योजन आगे जाकर प्रथम-वलय है । जिसमें १४४ चन्द्र और १४४ सूर्य स्थित हैं । मानुषोत्तर पर्वतका सूची-व्यास ४५ लाख योजन है । इसमें दोनों पावभागोंका ५०-५० हजार { १ लाल ) योजन वलय-व्यास मिला देनेपर ( ४५ लाख + १ लाख) = ४६ लाख योजन सूची-व्यास होता है। इसकी बादर परिधि (४६०००००४३)=१३८००००० लाख है । इसमें बलय-त्र्यास सम्बन्धी चन्द्र-सूर्योके प्रमाण ( १४४+१४४ )=२८८ का भाग देकर दोनोंके बिम्ब विस्तारका प्रमाण घटा देनेपर चन्द्रसे चन्द्रका और सूर्य से सूर्यका अन्तर प्रमाण प्राप्त होता है । यथा१७६११२०० - ४३१४-४७६१४३६ योजन अन्तर प्रमाण है। विद्वानों द्वारा विचारणीयग्रन्थकारने चन्द्र-सूर्यके बिम्ब व्यास को एक साथ जोड़कर (H+i)= योजन घटाकर अन्तर-प्रमाण निकाला है किन्तु चन्द्र एवं सूर्य बिम्बोंका व्यास एक सदृश नहीं है, अतः जितना अन्तर चन्द्रका चन्द्रसे है उतना ही सूर्यका सूर्यसे नहीं हो सकता है । यथा
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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