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तिलोयपण्णसी
[ गाथा : १५३-१७९ होति है 'ईसाणादिसु, विधिसासु दोषिण-बोण्णि वर-कडा । श्रेलिय* - मगो . गा, इदका रयणप्पहा णामा ॥१७३॥ रयणं च सव्व-रयणा, रुचकुत्तम-रयणउचका कडा ।
एदे पवाहिणेणं, पुब्योदिद - कूड - सारिच्छा ॥१७४॥
अर्थ-वड्यं, मणिप्रभ, रुचक, रत्नप्रभ, रत्न, सर्व रत्न, रुचकोत्तम और रत्नोच्चय इन पूर्वोक्त कूटोंके सदृश कूटोंमें दो-दो उत्तम कूट प्रदक्षिण-क्रमसे ईशानादि विदिशाओं में स्थित हैं ।। १७३-१७४ ॥
तेसु विसाकण्णाणं, महत्तरीओ कमेण णियसंति । रुचका विजया "रुचकाभा वइजयंति रुचककता ॥१७५।। तह य जयंती इचकुतमा य अपराजिदा जिणिवस्स ।
कुवंति जाद • कम्म, एदाओ परम - भत्तीए ।।१७६।।
अर्थ-इन कूटोंपर क्रमशः रुचका, विजया, रुचकाभा, वैजयन्ती, रुचककान्ता, जयन्ती, रुचकोत्तमा और अपराजिता, ये दिक्कन्याओंकी महत्तरियां (प्रधान ) निवास करती हैं। ये सब उत्कृष्ट भक्तिसे जिनेन्द्र-भगवान् का जातकर्म किया करती हैं ।।१७५-१७६ ।।
विमलो णिच्चालोको, सयपहो तह य णिच्चउज्जोवो।
चत्वारो वर - कूडो, पुन्वादि - पदाहिणा होति ।।१७७।। अर्थ-विमल, नित्यालोक, स्वयंप्रभ तथा नित्योद्योत, ये चार उत्तम कूट पूर्वादिक दिशाओं में प्रदक्षिणा रूपसे स्थित हैं 11 १७७ ॥
तेस पिदिसाकण्णा, वसंति सोदामिणी तहा कणया ।
सवहद-देवी कंधणचित्ता ताओ कुणंति उज्जोयं ॥१७८।।
अर्थ-उन कूटोंपर क्रमशः सौदामिनी, कनका, शतहत देवी और कञ्चनचित्रा में चार दिक्वान्याएं रहती हैं जो दिशाओंको प्रकाशित करती हैं ।। १७८ ।।
तपकडन्भंतरए, चत्तारि हवंति सिद्ध - यर - कडा । पुवादिसु पुथ्व-समा, अंजण जिण-गेह-सरिस-जिण-गेहा ।।१७६।।
पाठान्तरम् ।
३. द. ब. क.ज. पणि ।
४.द. ब.फ.
१. द. ब. क. ज. ईसाणदिसा । २. द. ज. बेलरिय। ज. उपटका। ५. द. ब. क. ज. चकाय ।