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________________ गाथा : १६६-१७२ ] पंचमो महाहियारो [ ४१ होवि गिरि रुचकवरो, रुदो अंजणगिरिव-सम-उवनो। बादाल-सहस्साणि, वासो सम्वत्थ वस-धणो गाढो ॥१६८।। ८४००० । १२. ! १५६० । अर्थ-रुचकवर पर्वत अजनगिरिके सदृश ( ८४००० योजन ) ऊँचा, बयालीस हजार (४२००० ) योजन विस्तारवाला और सर्वत्र दसके धन ( १००० यो०) प्रमाण अवगाहसे युक्त है।। १६८ ।। कुडा गंवायत्तो, सस्थिय-सिरिवच्छ-वडमाणवखा । तगिरि-पुन्यादि-विसे, सहस्स-रुवे तबल-उच्छेहो ॥१६६॥ प्रपं--इस पर्वतकी पूर्व दिशासे क्रमशः नन्द्यावर्त, स्वस्तिक, श्रीवृक्ष और वर्धमान नामक चार कूट हैं । इन कूटोंका विस्तार एक हजार ( १००० ) योजन और ऊँचाई इससे प्राधी ( ५३० यो०) है ।। १६९ ।। एवेसु 'दिग्गजिदा, देवा णिवसंति एक्क-पल्लाऊ । णामेहि पउमुत्तर - सुभद्द - णीलंजण - गिरोमो ॥१७०।। अर्थ-इन कूटोंपर एक पल्य प्रमाण प्रायु के धारक पद्मोत्तर, सुभद्र, नील और प्रजन गिरि नामक चार दिग्गजेन्द्र देव निवास करते हैं ।। १७० ।। तक्कूडब्भंतरए, वर-कडा चउ-दिसासु अट्ठा। चेट्ठति विश्व-रूपा, सहस्स-रुवा तदद्ध-उच्छेहा ।।१७१।। वि १००० । उ ५०० । अर्थ-इन कूटोंके अभ्यन्तर भागमें एक हजार ( १००० ) योजन विस्तारवाले और इससे अर्ध ( ५०० योजन ) प्रमाण ऊंचे चारों दिशाओंमें पाठ-आठ दिव्य-रूपवाले उत्तम कुट स्थित हैं ।। १७१ ।। पुवोदिव-णाम-जुवा, एदे बत्तीस रुचक-वर-कड़ा। तेसुम दिसाकपणा, ताइ चिय ताण णामाणि ।।१७२।। प्रर्थ-ये बत्तीस रुचकवर कट पूर्वोक्त नामोंसे युक्त हैं । इनपर जो दिक्कन्याएं रहती हैं, उनके नाम भी वे ( पूर्वोक्त) ही हैं ।। १७२ ।। १. द. क. ज. दिगदिदा, च, दिमादिदा ।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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