SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ९२-९६ अर्थ - पल्योपम प्रमाण भायुवाले व्यन्तरदेव अवधिज्ञानसे नीचे और ऊपर एक-एक लाख ( १००००० ) योजन प्रमाण देखते हैं ।। ११ ।। २३८ ] अवधिज्ञानका कथन समाप्त हुआ ।। १ । व्यन्तरदेवोंकी शक्तिका निरूपण--- बस - वास- सहस्साऊ, एक्क-सयं भारसाण मारेदु । पोसेदु पि समत्थो, एक्केक्को वैतरो देवो ।। ६२ ।। अर्थ – दस हजार वर्ष प्रमाण आवाला प्रत्येक त्तरदेव एक पालन करने में समर्थ होता है ॥१२॥ मनुष्यों को मारने एवं पण्णाधिय-सय-खंड, पमान- विक्खंभ- बहल जुत्तं सो । खेतं णि सत्तीए, उपखणिवणं 'ठवेदि अण्पत्थ ॥ ६३ ॥ | अर्थ – वह देव अपनी शक्तिसे एकसौ पचास धनुष प्रमाण विस्तार एवं ब्राहृल्यसे युक्त क्षेत्र को उखाड़ ( उठा कर अन्यत्र रख सकता है ।। ९३ ।। पहलट्टे बि भुजेहि, छबडाणि पि एक्क- पल्लाऊ । मारेदु पोसेदु, तेसु समस्थो दिवं लोयं ॥ ६४ ॥ अर्थ - एक पत्र प्रमाण आयुवाला व्यन्तरदेव अपनी भुजाओंसे छहखण्डों को उलटने में समर्थ है और उनमें स्थित मनुष्यों को मारने तथा पालने में भी समर्थ है १२९४ || ४. द. ब. दिदं । उक्कस्से रूव सदं देवो विकरेदि अजुवमेत्ताऊ | अवरे सग-वाणि मज्झिमयं विविहस्वाणि ॥६५॥ - अर्थ- दस हजार वर्ष की आयुवाला व्यन्तरदेव उत्कृष्ट रूपसे सौ रूपों की, जघन्यरूपसे सात रूपोंकी और मध्यमरूपसे विविध रूपों की अर्थात् सात से अधिक श्रोर सोसे कम रूपोंकी विक्रिया करता है ।।५।। सेसा वैतरदेवा, जिय-जिय-प्रोहोण जेत्तियं खेत्तं । पुरंति तैत्तियं पिहू, पत्तेक्कं विकरण-बलेां ॥ ६६ ॥ अर्थ - शेष व्यन्तरदेवों मेंसे प्रत्येक देव अपने-अपने अवधिज्ञानका जितना क्षेत्र है, उतने प्रमाण क्षेत्रको विक्रिया बलसे पूर्ण करते हैं ॥ ९६ ॥ १. दरवेदि । २. व. पल्लबोहि ब. क. ज. पल्लद्धदि ५ ६ लक्खदेण पि रु. छखंड लिपि ।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy