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________________ ५४४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ४२०-४२२ प्रथं-सब इन्द्रोंमें वल्लभाओंके मन्दिरोंका उत्सेधदे। उत्सेघसे बोस योजन अधिक है ।।४१९|| उच्छेह - दसम • भागे, एकाणं मंदिरेसु विक्खंभा । विक्खंभ - दुगुण - बोहं, वास्सद्ध पि गावतं ॥४२०॥ प्रथं-इनके मन्दिरोंका विष्कम्भ उत्सेधके दस भाग प्रमाण, दीर्घता विष्कम्भसे दूनी और अवगाढ़ व्याससे आधा है ।।४२०॥ सवेसु मंदिरेसु, उपवण - संडारिण होति विव्याणि । सम्ब-उडु-जोग-पल्लव-फल-कुसुम-विभूवि-भरिवाणि ॥४२१॥ अर्थ-सब मन्दिरों में समस्त ऋतुओंके योग्य पत्र, फूल और कुसुमरूप विभूतिसे परिपूर्ण दिव्य उपवन खण्ड होते हैं ।।४२१॥ पोक्खरणी-वायोमो, सच्छ-जलाओ विचित्स-रुवानो । अमित - कमल - समाओ, एक्कक्के मंदिरे होति ॥४२२।। अर्थ-एक-एक मन्दिरमें स्वच्छ जलसे परिपूर्ण, विचित्ररूपवाली और पुष्पित कमलपनोंसे संयुक्त पुष्करिणी वापियाँ हैं ॥४२२।। [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिए ]
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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