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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ४२०-४२२
प्रथं-सब इन्द्रोंमें वल्लभाओंके मन्दिरोंका उत्सेधदे।
उत्सेघसे बोस योजन अधिक है ।।४१९||
उच्छेह - दसम • भागे, एकाणं मंदिरेसु विक्खंभा ।
विक्खंभ - दुगुण - बोहं, वास्सद्ध पि गावतं ॥४२०॥ प्रथं-इनके मन्दिरोंका विष्कम्भ उत्सेधके दस भाग प्रमाण, दीर्घता विष्कम्भसे दूनी और अवगाढ़ व्याससे आधा है ।।४२०॥
सवेसु मंदिरेसु, उपवण - संडारिण होति विव्याणि ।
सम्ब-उडु-जोग-पल्लव-फल-कुसुम-विभूवि-भरिवाणि ॥४२१॥
अर्थ-सब मन्दिरों में समस्त ऋतुओंके योग्य पत्र, फूल और कुसुमरूप विभूतिसे परिपूर्ण दिव्य उपवन खण्ड होते हैं ।।४२१॥
पोक्खरणी-वायोमो, सच्छ-जलाओ विचित्स-रुवानो ।
अमित - कमल - समाओ, एक्कक्के मंदिरे होति ॥४२२।।
अर्थ-एक-एक मन्दिरमें स्वच्छ जलसे परिपूर्ण, विचित्ररूपवाली और पुष्पित कमलपनोंसे संयुक्त पुष्करिणी वापियाँ हैं ॥४२२।।
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