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तिलोय पण्णत्ती
तेसु ठिद-पुढवि-जीवा, जुत्ता आदाब कम्म उदएणं ।
जम्हा तम्हा ताण, फुरंत उण्हयर किराणि ॥ ६७ ॥ अर्थ-क्योंकि उन ( सूर्यं विमानों ) में स्थित पृथिवीकायिक जीव आताप नामकर्मके उदयसे संयुक्त होते हैं अतः वे प्रकाशमान उष्णतर किरणोंसे युक्त होते हैं ॥ ६७॥ 'एक्कडी - भाग- कवे, जोयणए ताण होंति घडवालं ।
उवरिम तलाण रुदं तदद्ध बहलं पि पत्तक्क ।। ६८ ।।
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। ६६ । ३३ ।
प्रथं
- एक योजनके इकसठ ( ६१ ) भाग करनेपर उनमें से अड़तालीस (४८ ) भागोंका जितना प्रमाण है उतना विस्तार उन सूर्य विमानोंमेंसे प्रत्येक सूर्य बिम्बके उपरिमतलका है और बाहस्य इससे आधा होता है ||६८ ||
एवाणं परिहीओ, पुह पुह ने जोयणाणि श्रविरेगा ।
ताणि अकिट्टिमाणि, प्रणाइणिहाणि बिबाणि ॥ ६६ ॥
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अर्थ - इनको परिधियाँ पृथक्-पृथक् दो योजनोंसे अधिक हैं । वे सूर्य-बिम्ब अकृत्रिम एवं अनादिनिधन है । ६९॥
विशेषार्थ - प्रत्येक सूर्य विमानका व्यास योजन और परिधि २ योजन १ कोस, कुछ कम १६०७ धनुष प्रमाण है ।
[ गाथा : ६७-७२
पत्रोक्क' तड- वेदो, चउ-गोउर-दार-सुंदरा ताणं । तम्भ वर वेदो सहिवं रायंगणं होदि ॥७०॥
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अर्थ -- उनमें से प्रत्येक सूर्य- विमानकी लट-वेदी चार गोपुरद्वारों से सुन्दर होती है । उसके बीच में उत्तम वेदीसे संयुक्त राजाङ्गण होता है ||७०||
रायंगणस्स मझे, वर- रयणमयाणि दिव्य कूडाणि । तेसु जिण पासावा, चेट्ठते सूर तमया ॥७१॥
अर्थ – राजाङ्गणके मध्य में जो उत्तम रत्नमय दिव्य कूट होते हैं उनमें सूर्यकान्त मणिमय जिन भवन स्थित हैं ॥ ७१ ॥
१. ब. क. ज. एक्फस्सट्टिय ब. एक्कस्सतिय ।
एदाणं मंदिराणं, मयंकपुर कूड भवण-सारिन्छ । सम्यं चिय वण्णणयं, गिउणेहिं एत्थ वत्तव्यं ।।७२ ||
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