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गाथा : ७३-७८ ]
पंचम महाहियारो
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अर्थ - निपुण पुरुषों को इन मन्दिरोंका सम्पूर्ण वर्णन चन्द्रपुरोंके कुटोंपर स्थित जिनभवनों के सदृश यहाँ भी करना चाहिए ||७२ ॥
तेसु जिण-पडिमाश्रो, पुण्योदिव-वण्णणा पयाराश्री |
विविचचण दहि, ताम्र पूजति सम्य सुरा ॥७३॥
अर्थ - उनमें जो जिन प्रतिमाएं विराजमान है उनके वर्णनका प्रकार पूर्वोक्त के ही सहश है । समस्त देव अनेक प्रकारके पूजा- द्रव्योंसे उन प्रतिमाओंकी पूजा करते हैं ॥७३॥
सदृश है ||७४||
एवाणं कूडाणं, होदि समतेण सूर
पासादा ।
ताणं पिवण्णणाश्रो, ससि पासावेहि सरिसाओ ॥७४॥
तलिया
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अर्थ -
- इन कूटोंके चारों ओर जो सूर्य प्रासाद हैं उनका भी वर्णन चन्द्र प्रासादों के
वर
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मज्भे, दिवायरा विश्व-सिंह- पीढेसु ।
छत - चमर जुत्ता, चेट्ठ ते विध्वयर तेया ।।७५ ||
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अर्थ- - उन भवनोंके मध्यमें उत्तम छत्र चँवरोंसे संयुक्त और अतिशय दिव्य तेजको धारण करने वाले सूर्य देव दिव्य सिहासनों पर स्थित होते हैं ॥१७५॥
सूर्यके परिवार देव देवियोंका निरूपण - जुदिसु दि-पहंकराओ, सूरपहा - अचिमालिनो पत्तेक्कं चत्तारो, दु- मणीणं अग देवी
वि ।
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॥७६॥
अर्थ - प्रत्येक सूर्यकी युतिश्रति प्रभङ्करा, सूर्यप्रभा और अचिमालिनी, ये चार अग्र देवियाँ होती हैं ||७६ ॥
देबोणं परिवारा, पत्तेषकं च सहस्स - देवीओ । यि णिय परिवार-सम, विविकरियं ताओ मेच्हति ॥७७॥
अर्थ- इनमें से प्रत्येक अग्र-देवीकी चार हजार परिवार देवियाँ होती हैं। वे अपने-अपने परिवार सदृश अर्थात् चार-चार हजार रूपोंकी विक्रिया ग्रहण करती हैं ॥७७॥
सामायि तरखा, तिप्यरिसाधो पइण्णयाणीया ।
अभियोगा बिसिया, सत्त-विहा सूर-परिवारा ॥ ७८ ॥
अर्थ – सामानिक, तनुरक्षक, तीनों पारिषद, प्रकीर्णक, अनीक, अभियोग्य और किल्विषिक, इसप्रकार सूर्य देवोंके सात प्रकार के परिवार देव होते हैं ||७८ ||