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गाथा : ६२३ - ६२८
अमो महाहियारो
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भूसा भरनेकी बुरजी नीचे गोल होकर क्रमशः ऊपरको फेलकर बढ़ती हुई पुनः शिखाऊरूप ऊपर जाकर घट जाती है, उसीप्रकार इस अन्धकार स्कन्धकी रचना है । इस अरिष्ट विमानके तल भागसे अक्ष-पाटकके आकार वाली अथवा यमका वेदिका सदृश होता हुआ यह तम आठ श्रेणियों में विभक्तल हो जाता है : मृदंग सदृश आकारवाली ये तम पक्तियाँ चारों दिशाओं में दो-दो होकर विभक्त एवं तिरछी होती हुई लोक-पर्यन्त चली गईं हैं। उन ग्रन्धकार पंक्तियों के प्रन्तरालमें ईशानादि विदिशाओं और दिशाओं में सारस्वत प्रादिक लोकान्तिक देवगर अवस्थित रहते हैं ।
भोट- यह विशेषार्थ लोक विभाग और तत्त्वार्थ श्लोकवातिकालंकार पंचम खण्ड के आधार पर लिखा है ।
मूलम्मि रुंद परिही, हवेबि संखेज्ज-जोयणा तस्स | मम्मि असंखेज्जा, उर्वार तत्तो प्रसंखेज्जो ||६२३ ॥
अर्थ-उस ( तम ) की विस्तार परिधि मूल में संख्यात योजन, मध्य में असंख्यात योजन और इससे ऊपर ख्यात योग है ।
संखेज्ज - जोयणाणि, तमकायाबो दिसाए पुरुवाए । गच्छ संडस मुलायारन्धरो दविखणुत्तरायामी ।। ६२४ ।। णामेण किण्हराई, पच्छिमभागे वि तारियो' य तमो । दक्षिण - उत्तर भागे, तम्मेत्तं गंधुव वीह-चउरस्सा ||६२५॥ एक्केषक - किण्हराई, हवेवि पुव्वावर द्विदायामा 1 एवाओ राजीओ, लियमा ण विवंति अण्णोष्णं ॥ ६२६॥
अर्थ - तमस्कायसे पूर्व दिशा में संख्यात योजन जाकर षट्कोण आकारको धारण करने वाला और दक्षिण-उत्तर लम्बा कृष्णराजी नामक तम है। पश्चिम भागमें भी वैसा ही अंधकार है । दक्षिण एवं उत्तर भाग में उतनी प्रमारण आयत, चतुष्कोण और पूर्व-पश्चिम आयामवाली एक-एक कृष्ण-राजी स्थित है। ये राजियाँ नियमसे परस्पर एक दूसरेको स्पर्श नहीं करती हैं |
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संखेज्ज-जोयणाणि,
राजोहितो दिसाए पुथ्याए ।
तूणकभंतरए राजी किण्हा य वीह चउरस्सा ||६२७|| उत्तर- वषिखण- दोहा, विखण-राजि * ठिवाय छिबिणं ।
पच्छिम बिसाए उत्तर-राजि छिविदूण होदि अण्ण-समो ।। ६२८ ।।
१. द. व. क. ज ठ सबंस । ३. द. ब. मिखाए ।
२. द. ब. क. ज. 3. तारिसा ।
४. व. ब. क. ज ठ. राजो रिदो गमिसिर ।