SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 662
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५९४ ] तिलोयपण्णसी [ गाथा : ६२०-६२२ सह-पख्वणी समता ॥ प्रर्म-विशेष यह है कि सौधर्म और ईशान कल्पमें उत्पन्न हुई देवियोंके भूल शरीर अपनेअपने कल्पके देवोंके पास जाते हैं ॥६१९॥ सुख प्ररूपणा समाप्त हुई। तमस्कायका निरूपणअरणवर-दीव बाहिर-जगवीवो जिणवरुत्त-संखाणि । गंतूण जोयणाणि, अरुण - समुदस्स पणिधीए ॥६२०।। एक्क-दुग-सत्त-एक्के, अंक-कमे जोयणाणि उरि णहं । गंतणं वलएणं, चेदि तमो 'तमक्काओ ।।६२१॥ प्रथं-( नन्दीश्वर समुद्र के आगे ९३) मरुणवरद्वीपको बाह्य जगतीसे जिनेन्द्रोक्त संख्या प्रमाण योजन जाकर अरुण समुद्रके प्राधि भागमें अंक-क्रमसे एक, दो, सात और एक अर्थात् एक हजार सात सौ इक्रीस ( १७२१) योजन प्रमाण ऊपर आकाशमें जाकर बलयरूपसे समस्काय ( अन्धकार ) स्थित है ॥१२०.६२१।। आदिम-घउ-कप्पेसु, देस- वियप्पाणि तेसु कादूर्ण । उवरि-गद-बम्ह-कप्प -प्पदमिदय-पणिधि-तल पत्तो ।।६२२॥ अर्थ- यह तमस्काय ) आदिके चार कल्पों में देश-विकल्पोंको अर्थात् कहीं-कहीं अन्धकार उत्पन्न करके उपरिगत ब्रह्म-कल्प सम्बन्धी प्रथम इन्द्रकके प्रणधितल भागको प्राप्त हुमा है ॥२२॥ विशेषार्थ-नन्दीश्वर समुद्रको वेष्टित कर नौवां अरुणवर द्वीप है और अरुणवर द्वीपको वेष्टितकर नौवाँ अरुणवर समुद्र है । मण्डलाकार स्थित इस समुद्रका व्यास १३१०७२००००० योजन प्रमाण है। अरुणवर द्वीपको बाह्य जगती अर्थात् अरुणवर समुद्रकी अभ्यन्तर जगसी से १७२१ योजन प्रमाण दूर जाकर प्राकाशमें अरिष्ट नामक अन्धकार वलयरूपसे स्थित है और प्रथम चार कल्पोंको ( एकदेश ) आच्छादित करता हुआ पोचवें ब्रह्म कल्पमें स्थित अरिष्ट नामक इन्द्रकके तल भागमें एकत्रित होता है । उस जगह इसका आकार मुर्गेको कुटो ( कुडला ) के सदृश होता है । अथवा जैसे १. ६. ब. क. ज. ह. तमंकादि। २. द.प. क, ज. ठ, कप्पं पदमिदा य परगचितल पंधे।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy