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एमी यदाहियारो
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अर्थ - इसप्रकार पूजा करके और अपने प्रासादों में जाकर वे देवेन्द्र सिंहासन पर आरूढ़ होकर देवों द्वारा सेवे जाते हैं ।। ६१३ ।।
गाथा ६९४ - ६१९
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बहुविह विगुणाहि लावण्ण-विलास सोहमाणाहि ।
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रवि - करण कोविवाह, वरच्छ राहि रमंति समं ॥ ६१४ ||
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अर्थ-वे इन्द्र बहुत प्रकारकी विक्रिया सहित, करने में चतुर ऐसी उत्तम अप्सराओंके साथ रमण करते हैं
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लावण्य - विलाससे शोभायमान और रति
६१४ । ।
वीणा - वेणु कुणीश्रो, सतरसेहि विभूसिवं गोवं । ललियाई णचचणाई, सुरपंति पेच्छति सयल सुरा ।। ६१५।।
- समस्त देव वीणा एवं बांसुरीकी ध्वनि तथा सात स्वरोंसे विभूषित गीत सुनते हैं और विलासपूर्ण नृत्य देखते हैं ।। ६१५ ।।
चामीयर - रयणमए, देवा देवीहि समं रमंति विश्वम्मि
सुगंध-धूवादि-वासिदे विमले ।
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पर्थ उक्त देव सुवणं एवं रत्नोंसे निर्मित और सुगन्धित धूपादिसे सुवासित विमल दिव्य प्रसाद में देवियोंके साथ रमरण करते हैं ।।६१६ ।।
संते प्रोहीणाणे, अण्णोष्णुप्पण्ण-पेम-मूढ- *- मणा ।
कामंधा गद कालं देवा देवीश्री ण विदंति ।। ६१७॥
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पासावे ।।६१६।।
अर्थ - अवधिज्ञान होनेपर परस्पर उत्पन्न हुए प्रेम में मुद्र-मन होनेसे में देव और देवियाँ कामान्ध होकर बीतते हुए कालको नहीं जानते हैं ।। ६१७ ||
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गन्भावयार - पहुविसु, उत्तर - देहा सुराण गच्छति ।
जम्मण ठाणेसु सुहं, मूल सरीराणि चेति ॥ ६१८ ||
अर्थ - गर्भ और जन्मादि कल्याणकों में देवोंके उत्तर शरीर जाते हैं। उनके मूल शरीर सुख पूर्वक जन्म स्थानों में स्थित रहते हैं ।। ६१८ ||
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वरि विसेसो एसो, सोहम्मीसाण जाद देवीणं ।
ति मूल देहा, यि जिय कप्पामराण पासम्मि ।। ६१६॥
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१. द. वरदा
२. ८. ब. वराह ।
३. द. व. झीओ । ४. ६. ब. क. ज. द. मूल ५ द ब रंभाधयार ।