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________________ एमी यदाहियारो [ ५९३ अर्थ - इसप्रकार पूजा करके और अपने प्रासादों में जाकर वे देवेन्द्र सिंहासन पर आरूढ़ होकर देवों द्वारा सेवे जाते हैं ।। ६१३ ।। गाथा ६९४ - ६१९ / बहुविह विगुणाहि लावण्ण-विलास सोहमाणाहि । २ रवि - करण कोविवाह, वरच्छ राहि रमंति समं ॥ ६१४ || - अर्थ-वे इन्द्र बहुत प्रकारकी विक्रिया सहित, करने में चतुर ऐसी उत्तम अप्सराओंके साथ रमण करते हैं ।। लावण्य - विलाससे शोभायमान और रति ६१४ । । वीणा - वेणु कुणीश्रो, सतरसेहि विभूसिवं गोवं । ललियाई णचचणाई, सुरपंति पेच्छति सयल सुरा ।। ६१५।। - समस्त देव वीणा एवं बांसुरीकी ध्वनि तथा सात स्वरोंसे विभूषित गीत सुनते हैं और विलासपूर्ण नृत्य देखते हैं ।। ६१५ ।। चामीयर - रयणमए, देवा देवीहि समं रमंति विश्वम्मि सुगंध-धूवादि-वासिदे विमले । - - पर्थ उक्त देव सुवणं एवं रत्नोंसे निर्मित और सुगन्धित धूपादिसे सुवासित विमल दिव्य प्रसाद में देवियोंके साथ रमरण करते हैं ।।६१६ ।। संते प्रोहीणाणे, अण्णोष्णुप्पण्ण-पेम-मूढ- *- मणा । कामंधा गद कालं देवा देवीश्री ण विदंति ।। ६१७॥ 1 पासावे ।।६१६।। अर्थ - अवधिज्ञान होनेपर परस्पर उत्पन्न हुए प्रेम में मुद्र-मन होनेसे में देव और देवियाँ कामान्ध होकर बीतते हुए कालको नहीं जानते हैं ।। ६१७ || - 9 गन्भावयार - पहुविसु, उत्तर - देहा सुराण गच्छति । जम्मण ठाणेसु सुहं, मूल सरीराणि चेति ॥ ६१८ || अर्थ - गर्भ और जन्मादि कल्याणकों में देवोंके उत्तर शरीर जाते हैं। उनके मूल शरीर सुख पूर्वक जन्म स्थानों में स्थित रहते हैं ।। ६१८ || - वरि विसेसो एसो, सोहम्मीसाण जाद देवीणं । ति मूल देहा, यि जिय कप्पामराण पासम्मि ।। ६१६॥ - १. द. वरदा २. ८. ब. वराह । ३. द. व. झीओ । ४. ६. ब. क. ज. द. मूल ५ द ब रंभाधयार ।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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