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तिलोय पण्णत्ती
[ गाया । ६०-६१३
अर्थ-वे देव क्षीरसमुद्र के जल से पूर्ण एक हजार आठ सुवर्ण कलशों के द्वारा महाविभूति के साथ जिनाभिषेक करते हैं ||६०७ ||
५९२ ]
यज्जते दिव्बेस
मद्दल- जयघंटा - पडह- काहलादीसु" ।
तूरेसु ते जिण-पूजं पकुवंति ॥ ६०८ ||
"
अर्थ – मल, जयघण्टा, पटह और काहल आदिक दिव्य वादित्रों के बजते रहते ये देव जिन पूजा करते हैं ।। ६०८ ||
भिंगार कलस - वपण छत्तत्तय खमर पहुवि बहिं
पूजं काढूण तदो, जल-गंधावीहि अच्चति ॥ ६०६ ||
धर्म ---वे देव भृङ्गार, कलश, दर्पण, तीन छत्र और नामरादि द्रव्यों से पूजा कर लेने के पश्चात् जल-गन्धादिक से अन करते हैं ।। ६० ।।
तो हरिसेण सुरा, णाराविह-गाडयाई दिव्वाइं ।
बहु-रस-भाव- जुवाई, णच्चति विचित्त-भंगी ।।६१० ॥
अर्थ - तत्पश्चात् वे देव हर्षपूर्वक विचित्र शैलियों से नाना रसों एवं भावों से युक्त नाना प्रकार के दिव्य नाटक करते हैं ।।६१० ।।
सम्माइट्ठी देवा, पूजा कुठवंति जिणवराण सया ।
कम्मण णिमितं, म्भिर भत्तीए भरिव - मरणा ।। ६११॥
अर्थ- सम्यग्दृष्टिदेव कर्म-क्षयके निमित्त सदा मनमें अतिशय भक्ति पूर्वक जिनेन्द्रों की पूजा करते हैं ।। ६११।।
मिच्छाइट्ठी देवर, णिचं प्रचंति जिनवर-पडिमा । कुल- देवदा इअ फिर, मण्णंता अण्ण-बोहण-वसेणं ॥ ६१२ ॥
अर्थ - मिथ्यादृष्टि देव
जिनेन्द्र प्रतिमाओं की पूजा करते
हैं
अन्य देवों के सम्बोधन से 'ये कुल देवता हैं' ऐसा मानकर निश्य ।।६१२ ।।
देवों का सुखोपभोग---
इय पूजं काढूणं, पासादेसु लिएसु गंतूर्णं । सिंहासनाहिस्ता, सेविते सुरेहि देविता ।।६१३ ।।
१. द. ब. के. ज. ठ. कालसहिदेसु ।