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________________ गाथा : ६०१-६०७ ] अट्टम महाहियारो सरसालं पविसिय वर- रयण- विभुसणाणि दिव्याणि । गहिण परम-हरिसं, भरिदा कुठवंति णेपत्थं ॥ ६०१ || अर्थ - भूषणशाला में प्रवेश कर और दिव्य उत्तम रत्न-भूषणों को लेकर ( वे ) उत्कृष्ट हर्ष से परिपूर्ण हो ( उसकी ) वेषभूषा करते हैं ।। ६०१ ।। ततो ववसायपुरं पविसिय श्रभिसेय- विश्व - पूजाणं । जोगाई वाई, गेव्हिय परिवार संजुता ॥१६०२ ॥ पच्चत-चित्त-धया, घर-चाभर चाय छत्त-साहिल्ला । म्भिर - भति-पयडा, वच्चंति जिणिद भवाणि ।।६०३ ॥ अर्थ - तत्पश्चात् वे ( नवजात ) देव व्यवसायपुर में प्रवेशकर अभिषेक और पूजा के योग्य दिव्य द्रव्यों को ग्रहणकर परिवार से संयुक्त होकर अतिशय भक्ति में प्रवृत्ति कर नाचती हुई विचित्र ध्वजाओं सहित, उत्तम चैवर एवं सुन्दर छत्र से शोभायमान जिनेन्द्र भवन में जाते हैं ।।६०२-६०३ ॥ दट्ठूण जिणिदपुरं वर-मंगल- तूर-सह- हलबोलं । देवा देवी सहिदा, कुच्वंप्ति' पवाहिणं पणदा २६०४ ॥ अर्थ- देवियों सहित वे देव उत्तम मंगल-वादित्रों के शब्द से मुखरित जिनेन्द्रपुर को देखकर नम्र हो प्रदक्षिणा करते हैं ।। ६०४ ।। [ ५६१ छत्तत्तय सिंहासन- भामण्डल - घामरादि चारुणं । जिनपरिमाणं पुरदो, जय-जय सद्द पकुण्वन्ति ।।६०५ || अर्थ- पुनः वे देव तीन छत्र सिंहासन, भामण्डल और चामरादि से ( संयुक्त ) सुन्दर जिन - प्रतिमाओं के आगे जय-जय शब्द उच्चरित करत हैं || ६०५ ।। थोण युदि सहि, जिंगिद-पडिमा भत्ति-भरि-मणा । एवाणं श्रभिसे, ततो कुवंति पारंभं ||६०६ ॥ 1 अर्थ-वे देव भक्तियुक्त मन से संकड़ों स्तुतियों द्वारा जिनेन्द्र प्रतिमाओं की स्तुति करने के पश्चात् उनका श्रभिषेक प्रारम्भ करते हैं ।। ६०६ ।। खीरद्धि-सलिल- पूरिद-कंचरण-कलसेहिं ग्रड सहस्सेहि । देवा जिणाभिसेयं महाविभूषीए कुध्यति ॥६७॥ १. क. ज. द. कुरति ।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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