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________________ ५९० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ५९५-६०० वायति किन्धिस-सुरा, जयघंटा पह-मद्दल-प्पहदि । संगीय - णच्चपाई, पप्पव - देवा पकुवंति ॥५६॥ अर्थ-किल्विष देव जयघण्टा, पटह एवं मर्दल प्रादि बजाते हैं और पप्पथ (?) देव संगीत एवं नृत्य करते हैं ॥५६॥ देवी - देव - समाज, बणं तस्स कोदुगं होवि । तावे कस्त विभंगं, कस्स वि प्रोही फुरदि गाणं ॥५४६।। अर्थ-देवों और देवियों के ममह देखकर उस देव को कौतुक होता है। उस समय किसी ( देव ) को विभङ्ग और किसी को अबधिज्ञान प्रगट होता है ।५९६।। जादूरण देवलोयं, अप्प-फलं जावमेवभिदि केई । मिच्छाइट्ठी देवा, गेण्हंति विसुद्ध-सम्मत्तं ॥५६७॥ अर्ष-अपने ( पूर्व पुण्यके ) फल से यह देवलोक प्राप्त हुआ है, इस प्रकार जानकर कोई मिथ्यादृष्टि देव विशुद्ध सम्यक्त्व को ग्रहण करते हैं ।।५६७।। तादे देवी-णिवहो, प्राणंदेणं महाविभूवीए । एवाणं देवाणं भरणं' सेसं पहिलू-मणे ॥५६८।। प्रर्थ-फिर देवी-समूह आनन्द पूर्वक हर्षित मन होकर महाविभूति के साथ इन देवों का भरण-पोषण करते हैं ।।५९८।। जिन-पूजा का प्रक्रम-- जिण-पूजा-उज्जोगं, कुणंति केई महाविभूदीए । केई पुखिल्लारणं, देवारणं बोहण • वसेणं ॥५६॥ अर्ष-कोई देव महाविभूति के साथ स्वयं ही जिनपूजा का उद्योग करते हैं और कितने ही देव पूर्वोक्त देवों के उपदेश वश जिन-पूजा करते हैं ।।५९९॥ कादण दहे पहाणं, पविसिय अभिसेय-मंडवं दिव्यं । सिंहासणाभिरूढं, देवा कुवंति अभिसेयं ॥६००।। अर्थ-द्रह में स्नान करके दिव्य अभिषेक-मण्डप में प्रविष्ट हो सिंहासन पर आरूढ हुए उस नवजात देवका अन्य ( पुराने ) देव अभिषेक करते हैं ॥६००।। १. ६. क. ज. ठ. भरति । २. ब. क. कुन्दति ।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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