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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ५९५-६०० वायति किन्धिस-सुरा, जयघंटा पह-मद्दल-प्पहदि ।
संगीय - णच्चपाई, पप्पव - देवा पकुवंति ॥५६॥
अर्थ-किल्विष देव जयघण्टा, पटह एवं मर्दल प्रादि बजाते हैं और पप्पथ (?) देव संगीत एवं नृत्य करते हैं ॥५६॥
देवी - देव - समाज, बणं तस्स कोदुगं होवि ।
तावे कस्त विभंगं, कस्स वि प्रोही फुरदि गाणं ॥५४६।।
अर्थ-देवों और देवियों के ममह देखकर उस देव को कौतुक होता है। उस समय किसी ( देव ) को विभङ्ग और किसी को अबधिज्ञान प्रगट होता है ।५९६।।
जादूरण देवलोयं, अप्प-फलं जावमेवभिदि केई ।
मिच्छाइट्ठी देवा, गेण्हंति विसुद्ध-सम्मत्तं ॥५६७॥
अर्ष-अपने ( पूर्व पुण्यके ) फल से यह देवलोक प्राप्त हुआ है, इस प्रकार जानकर कोई मिथ्यादृष्टि देव विशुद्ध सम्यक्त्व को ग्रहण करते हैं ।।५६७।।
तादे देवी-णिवहो, प्राणंदेणं महाविभूवीए ।
एवाणं देवाणं भरणं' सेसं पहिलू-मणे ॥५६८।। प्रर्थ-फिर देवी-समूह आनन्द पूर्वक हर्षित मन होकर महाविभूति के साथ इन देवों का भरण-पोषण करते हैं ।।५९८।।
जिन-पूजा का प्रक्रम-- जिण-पूजा-उज्जोगं, कुणंति केई महाविभूदीए ।
केई पुखिल्लारणं, देवारणं बोहण • वसेणं ॥५६॥
अर्ष-कोई देव महाविभूति के साथ स्वयं ही जिनपूजा का उद्योग करते हैं और कितने ही देव पूर्वोक्त देवों के उपदेश वश जिन-पूजा करते हैं ।।५९९॥
कादण दहे पहाणं, पविसिय अभिसेय-मंडवं दिव्यं ।
सिंहासणाभिरूढं, देवा कुवंति अभिसेयं ॥६००।।
अर्थ-द्रह में स्नान करके दिव्य अभिषेक-मण्डप में प्रविष्ट हो सिंहासन पर आरूढ हुए उस नवजात देवका अन्य ( पुराने ) देव अभिषेक करते हैं ॥६००।।
१. ६. क. ज. ठ. भरति । २. ब. क. कुन्दति ।