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गाथा : ५९०-५६४ ] अट्ठमो महायिारो
[ ५८१ उत्पत्ति समय में देवों की विशेषताजायते सरलोए. उववारपरे महारिदमयणे ।
जादा' य मुहुत्तेणं, छप्पज्जत्तीसो पार्वति ।।५६०।।
अर्थ-ये देव सुरलोक के भीतर उपपादपुर में महाध शय्या पर उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होने के पश्चात् एक मुहूर्त में ही छह पर्याप्तियाँ भी प्राप्त कर लेते हैं ।।५९०।।
णस्थि गह-केस-लोमा, ण चम्म-मंसा ण लोहिद-वसाओ ।
गट्ठी ण मुत्त-पुरीसं, ण सिराओ देव-संघडणे ॥५६१॥
अर्प-देवों के शरीर में न मख, केश और रोम होते हैं; न चमड़ा और मांस होता है; न रुधिर और चर्बी होती है; न हड्डियां होती हैं; न मल-मूत्र होता है और न नसें ही होती हैं ।।५९१।।
वष्ण-रस-गंध-फासं, अइसय-वेगुब्ध दिय-बन्धादो ।
गेहदि देवो बोद्दि, ? उचिद-कम्माणु-भावेणं ॥५६२॥
प्रम-संचित ( पुण्य ) कर्म के प्रभाव से और अतिशय वैक्रियिक रूप दिव्य बन्ध होने के कारण देव उत्तम-वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श ग्रहण करते हैं ।।५१२॥
उप्पण्ण-सुर-विमाणे, पुथ्वमणग्याडिदं कवाड-जुर्ग । उग्घडदि तम्मि काले, पसरदि आणंद-भेरि-रषं ॥५६३॥
एवमुप्पत्ती गदा ॥ अर्थ-देव विमान में उत्पन्न होने पर पूर्व में अनुद्घाटित ( बिना खोले ) कपाट-युगल खुलते हैं और फिर उसी समय आनन्द भेरी का शब्द फैलता है ।।५६३।।
इसप्रकार उत्पत्ति का कथन समाप्त हुआ ।। भेरी के शब्द श्रवण के बाद होने वाले विविध क्रिया-कलाप सोदूरण भेरि-सई, जय जय णंद त्ति विविह-घोसेणं ।
एंति परिवार-देवा, देवीप्रो रच-हिदयाभो ॥५९४॥
प्रर्ष-भेरी का शब्द सुनकर अनुराग युक्त हृदय वाल परिवारों के देव और देवियां 'जय जय, नन्द' इसप्रकार के विविध शब्दोच्चार के साथ आते हैं ।।५९४।।
१. ६.ब. क. ज. . जाजा य ।
२. द. ब. होदिर बाधांघि, क. अ. स. गेहेदि ।