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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ५६५-५८९
अर्थ - पूजा, व्रत, तप, दर्शन, ज्ञान और चारित्रसे सम्पन्न निर्ग्रन्थ भव्य जीव इससे ( उपरिम ग्रैवेयक से ) ग्रागे सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त उत्पन्न होते हैं ।। ५८४ ।।
चरका परिवज्ज-धरा, मंद - कसाया पियंवदा केई । कमसो भावण पहुवी, जम्मते बम्ह कप्पंतं ।। ५८५ ।।
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अर्थ - मन्द- कषायो एवं प्रिय बोलने वाले कितने ही चरक ( चार्वाक ) ( और परिव्राजक क्रमशः भवनवासियोंको आदि लेकर ब्रह्मकल्प पर्यन्त उत्पन्न होते हैं जे पंचेंद्रिय - सिरिया, सण्णी हु श्रकाम - णिज्जरेण जुदा । मंद कसाया केई, अंति' सहस्सार परियंतं ।।५८६ ।।
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तणुदंडावि सहियाजीबा जे अमंद-कोह- जुदा |
कमसो भावण-पहुदी, केई जम्मंति अच्चुदं जाब ।।५८७ ।।
साघु विशेष )
अर्थ- जो कोई पचेन्द्रिय संज्ञी तिर्यञ्च श्रकाम-निर्जरासे युक्त और मन्द कषायी हैं, वे सहस्रार कल्प पर्यन्त उत्पन्न होते हैं ।।५८६ ।।
५८५ ।।
अर्थ- जो तनुदण्डन अर्थात् कायक्लेश आदि सहित और तीन क्रोध से युक्त हैं ऐसे कितने ही श्राजीवक साधू क्रमशः भवनवासियों से लेकर अच्युत स्वर्गं पर्यन्त जन्म लेते हैं ।।५८७ || था ईसाणं कप्पं, उत्पत्ती होवि देव-देवीणं ।
तप्परषो उम्भूदी, देवाणं केवलाणं पि ॥ १६६ ॥ |
अर्थ – ईशान कल्प पर्यंन्त देवों और देवियों ( दोनों ) की उत्पत्ति होती है । इससे भागे केवल देवों की ही उत्पत्ति है ।।५८८ ॥
१. द. व. क. अ. उ. जाव । २. द. ब. क ज ठ बंध सम्मत्ता ।
ईसाण संतवच्चुद कप्पंतं जाय होंति कंदप्पा | feforfent अभियोगा, गिय-कप-जहष्ण ठिदि-सहिया ॥ १६६ ॥
एयमायुग-बंध" समत्तं ॥
अर्थ- कन्दर्प, किरिषिक और अभियोग्य देव अपने-अपने कल्पकी जघन्य स्थिति सहित क्रमशः ईशान, लान्तय और अच्युत कल्प पर्यन्त होते हैं ।। ५५९ ।।
इसप्रकार आयु बन्ध का कथन समाप्त हुआ ।।