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गाथा : ५७६-५८४ ]
अट्टम महाहियारी
सबल-चरिता कूरा, उम्मग्गत्था - निदाण - कद - भावा ।
मंद - कसायाणुरदा, बंधते' 'ग्रप्वइद्धि - असुराउं ॥ ५७६ ॥
पर्थ - दूषित चारित्रवाले, क्रूर, उन्मार्ग में स्थित, निदान भाव सहित और मन्द कषायों में अनुरक्त जीव प्ररुपद्धिक देवोंकी आयु बांधते हैं ।। ५७६ ।।
देवोंमें उत्पद्यमान जीवोंका स्वरूप ---
वसपुव्व-धरा सोहम्म-पहृदि सम्बद्धसिद्धि परियंतं । चोद्दसपुव्य धरा तह, लंत कप्पावि वच्चते ।। ५८० ।।
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जाती हैं ।।५-२।।
अर्थ- दसपूर्व धारी जीव सौधर्मकल्पसे सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त तथा चौदह पूर्वधारी लान्तव कल्पसे सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त जाते हैं ।।५८० ॥
सोहम्मादी - श्रच्चद परियंत जंति देसबब-जुत्ता ।
च - विह-बाण-पट्टा, अकसाया पंचगुरु भत्ता ॥५८१॥
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अर्थ - चार प्रकारके दानमें प्रवृत्त, कषायोंसे रहित एवं पंच परमेष्ठियोंको भक्तिसे युक्त, ऐसे देवाव्रत संयुक्त जीव सौधर्म स्वर्गसे अच्युत स्वर्ग पर्यन्त जाते हैं ।। ५८१ ॥
सम्मत्त - णाण-अज्जव' - लज्जा-सीला बिएहि परिपुष्णा ।
जायंते इत्थीओ, जा श्रजुद कप्प परियंतं ॥ ५६२ ॥
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[ ५८७
अर्थ – सम्यक्त्व, ज्ञान, आर्जव, लज्जा एवं शोलादिसे परिपूर्ण स्त्रियाँ अच्युत कल्प पर्यन्त
जिण- लिंग धारिणो जे, उधिकट्ठ- "तवस्समेण संपुष्णा । ते जायंति श्रभव्या, उथरिम गेवेज्ज परियंतं ॥१५८३॥
अर्थ- जो प्रभव्य जीव जिन-लिङ्गको धारण करते हैं और उत्कृष्ट तपके श्रमसे परिपूर्ण हैं वे उपरि-वेक पर्यन्त उत्पन्न होते हैं ।। ५८३ ।।
परदो
चरण " - वद-तव- दंसण णाण-चरण- संपण्णा ।
णिग्गंथा जायंते, भव्वा सम्यट्टसिद्धि परियंतं ॥ १८४ ॥
१५. ब. वखते । २. ब. क. ज. ठ. अपदि अ ।
३. ८. क. छ. अज्जसीला, ब. अ. धज्जावसीला ।
४. व. ब. क. ज. तवासमेण । ५. व. ब. ज. ठ. अंबतपद 1