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तिलोय पण ती
[ गाथा । ६२६-६३५ प्रम-राजियों से संख्यात योजन पूर्व दिशा में अभ्यन्सर भाग में जाकर पायत-चतुरका और उस र-दक्षिण दीर्घ कृष्ए-राजी है जो दक्षिण राजी को छूती है । पश्चिम दिशा में उत्तर राजी को छूकर अन्यतम है ॥६२७.६२८॥
सखेज्ज-जोयाणा राजी शिवबाद मालाए । ११५ .
मंतुणभंतरए, एक्कं चिय किण्ह' • राजियं होई ॥६२६ ।। अर्ष-राजी से दक्षिण दिशा में आभ्यन्तर भाग में संख्यात योजन जाकर एक ही कृष्ण राजी है ॥६२९।।
बोहेण छिविवस्स य, जव-खेत्तस्सेक्क-भाग-सारिन्छा।
पच्छिम बाहिर-राजि, छिविणं सा दिवा' णियमा ॥३०॥
प्रर्ष-दीर्घता की ओर से छेदे हुए यवक्षत्र के एक भागके सदृश वह राजी नियम से । पश्चिम बाह्य राजी को छूकर स्थित है ।।६३०॥
पुच्चावर-आयामो, सम-काय दिसाए होदि तप्पट्टी।
उत्तर-भागम्मि तमो, एक्को छिविण पुष्व-बहि-राजो ॥६३१॥
अर्थ-( दरिण ) दिशा में पूर्वापर आयत तमस्काय है। उत्तर भाग में पूर्व बाह्य राजी को छूकर एक तम है ।।६३१।।
कृष्ण-राजियों का अल्पबहत्त्वअरुणवर-धोव-बाहिर-जगवीए तह यह सम-सरीरस्स । विच्चाल पहयलादो, अभंतर-राजि-तिमिर-कायाणं ॥६३२॥ विच्चालं' यासे, तह संखेज्जगुणं हवेवि शिपमेणं । सं माणाको रणेयं, अभंसर-राजि-संख-गुण-जुत्ता ।।६३३॥ अम्भंतर-रानीयो, अहिरेग-जुदो हवेवि तमकानो। अभंतर - राजोदो, बाहिर • राजो 4 किंचूणा ॥६३४॥ बाहिर-राजोहितो, बोण्णं राजीण जो दुविच्चालो। प्रविरित्तो इय अप्पाबहुवं होवि हु चत-दिसासुपि ॥६३५।।
-- --- - १. द. म. म. ज. है. रिण । २.६.५.क. अ. द. रिक्षा। ३. प.बक. ज. ४. विषेसायास ।
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