________________
गाथा : १८१-१९२ ] पंचमो महाहियारो
1 ४५ अर्थ-प्राकारके मध्य में अतिशय रमणीय, बारह सौ ( १२०० ) योजन-प्रमाण विस्तार सहित और एक कोस ऊँचा राजाङ्गण स्थित है ।। १८८ ।।
तस्स य थलस्स उर्वार, समंतदो दोणि कोस उच्छेहं । पंच-सय - चाय - रुदं, चउ - गोउर - संजुवं वेदी ॥१६॥
को २ । दंड ५००। अर्थ-इस स्थलके ऊपर चारों ओर दो (२) कोस ऊंची, पाँचसौ (५००) धनुष विस्तीर्ण और चार गोपुरोंसे युक्त वेदी स्थित है ।। १८९ ।।
राजाङ्गण स्थित प्रासादका विस्तारादि रायंगण-बहु-मझे, कोस - सयं पंचवीसमभहियं । विखंभो तन्दुगणो, उदनो गाउँ' दुवे कोसा ॥१०॥
१२५ । २५० ! को २ ।। पासावो मणि - तोरण - संपण्णो अट्र-जोयणच्छेहो। चउ-विस्थारो दारो', वज्ज - कवाडेहि सोहिल्लो ॥१९॥
।४। अर्थ-राजाङ्गण के बहु-मध्य-भागमें एक सौ पच्चीस ( १२५ ) कोस विस्तारवाला, इससे दूना { २५० कोस ) ऊँचा, दो (२) कोस-प्रमाण अवगाह सहित और मणिमय तोरगोंसे परिपूर्ण प्रासाद है । वचमय कपाटोंसे सुशोभित इसका द्वार आठ (८) योजन ऊँचा और चार (४) योजन प्रमाण विस्तार सहित है ।। १९०-१९१ ।। ।
पूर्वोक्त प्रासादकी चारों दिशाओंमें स्थित प्रासाद एदस्स च-विसासु, चत्तारो होंति दिव्य-पासादा।
उप्पण्णुप्पण्णाणं, चउ चउ वड्डंति जाय छक्कतं ॥१६२।। अर्थ-इस ( राजाङ्गणके बहुमध्यभागमें स्थित ) प्रासादकी चारों दिशाओं में चार दिव्य प्रासाद हैं। इसके आगे छठे मण्डल पर्यन्त ये प्रासाद उत्तरोत्तर चार-चार गुणे बढ़ते जाते