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अर्थ – चन्द्रकी संचार भूमिका विस्तार योजनसे अधिक पाँच सौ दस ( ५१० ) अर्थात् ५१०
तिलोयपण्णत्ती
बोसून बेसर्याणि जंबूदीवे चरंति सीबकरा । रवि-मंडलाधियाणि तीसुत्तर-तिय-सयाणि लयणम्मि ॥ ११८ ॥
| १८० । ३३० । ६ ।
[ गाथा : ११८-१२१
सूर्य- बिम्बके विस्तारसे अतिरिक्त अर्थात् योजन प्रमाण है ।। ११७ ।।
पाचन्द
सौ तीस (३३०) योजन प्रमाण लवणसमुद्र में संचार करते हैं ।। ११८ ।।
(१०) रोज जम्बूद्वीपमें और सूर्यमण्डल से अधिक तीन
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विशेषार्थ - जम्बूद्वीप सम्बन्धी दोनों चन्द्रोंके संचार क्षेत्र का प्रमाण ५१०३ योजन प्रमाण है। इसमें से दोनों चन्द्र जम्बूद्वीपमें १८० योजन क्षेत्र में और अवशेष ( ५१०६ १८०० ) ३३०१६ योजन लवणसमुद्र में विचरण करते हैं ।
चन्द्र गलीके विस्तार श्रादिका प्रमाण
पारस ससहराणं, बोहोओ होंति चारखेत्तम्मि ।
मंडल - सम- रुंदाओ, तदद्ध बहलाओ पत्तेक्कं ।।११६।।
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। । ।
अर्थ – चन्द्र बिम्बोंके चार क्षेत्र ( ५१०६ यो० ) में पन्द्रह गलियाँ हैं । उनमें से प्रत्येक गलीका विस्तार चन्द्रमण्डलके बराबर योजन और बाहुल्य इससे आधा है ॥११॥
योजन )
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सुमेरु पर्वत से चन्द्र की अभ्यन्तर वीथीका अन्तर प्रमाणसट्ठि-जुदं तिसयाणि, मंदर-सं बं च अंबु- विक्वं । सोहिय बलिते लद्ध, चंबाबि महीहि-मंदरंतरयं ॥ १२० ॥ चउदाल सहस्साणि, वीसुत्तर- अड-सयाणि मंदरदो । गच्छिय सम्बम्भंतर वीही इंदूरण परिमाणं ।।१२१ ।।
| ४४५२० ।
अर्थ- जम्बूद्वीप के विस्तारमेंसे तीन सौ साठ योजन और सुमेरुपर्वतका विस्तार कम करके शेषको आधा करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना चन्द्रकी प्रथम ( श्रभ्यन्तर ) संचार पृथिवी ( वीथी ) से सुमेरुपर्वतका अन्तर हैं । ( अर्थात् ) सुमेरुपर्वतसे चवालीस हजार आठ सौ बीस (४४५२० ) योजन प्रमारण आगे जाकर चन्द्रकी सर्वाभ्यन्तर ( प्रथम ) वीथी प्राप्त होती है ।। १२०-१२१।