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गाथा : ११४-११७ 1
पंचमो महाहियारो चन्द्र प्रादि देयोंके नगरों प्रादिका प्रमाणणिय-णिय-रासि-पमारणं, 'एवाणं जं मयंक-पहुवीणं ।
णिय-णिय-णयर-पमाणं, तेत्तियमेत्तं च कूड-जिराभवणं ॥११४।।
अर्थ-इन चन्द्र आदि देवोंको निज-निज राशिका जो प्रमाण है, उतना ही प्रमाण अपनेअपने नगरों, कूटों और जिन-भवनोंका है ।।११४।।
विशेषार्थ ---गाथा ११ सं ३५ पर्यन्त चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारानों को निज-निज राशिका अलग-अलग जो प्रमाण कहा गया है, वहीं प्रमाण उनके नगरों, कूटों और जिनभवनोंका है।
लोकविभागानुसार ज्योतिष-नगरोंका बाहल्य - जोइग्गण - यशेम, सम्मा माग सारिन्छ । बहलत्तं मण्णंते, लोयविभायस्स प्राइरियाए ॥११॥
पाठान्तरम् । ।। एवं परिमाणं समतं ।।५।। अर्थ:-'लोकविभाग' के आचार्य समस्त ज्योतिर्गरणोंको नगरिमों के विस्तार प्रमाण के सदृश ही उनके बाहल्यको भी मानते हैं ।।११५।।
इसप्रकार परिमाणका कथन समाप्त हुआ ॥५
चन्द्र विमानोंकी संचार-भूमिचर-विबा मणुवाणं, खेत्ते तस्सि च जंबु-दीवम्मि ।
वोणि मियंका ताणं, एक्कं चिय होदि चारमही ॥११६॥
अर्थ-चर अर्थात् गमनशील ज्योतिष बिम्ब मनुष्य क्षेत्र में ही हैं, मनुष्य क्षेत्रके मध्य स्थित जम्बूद्वीपमें जो दो चन्द्र हैं उनकी संचार-भूमि एक ही है ।।११६।।
पंच-सय-जोयणाणि, दसुत्तराई हवेवि "विक्वंभो । ससहर - चारमहीए, विरगयर - बिबाहिरितारिण ॥११७॥
। ५१० । । ।
१. द. र. क. ज. पाहावं । २. द. क, अ, जम्हयंक, च. जमयंक । ३. द. ब. क. ज. मोठ्ठा । ४. द.न.क. ज. विपश्यंभा ।