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गाथा : २३१-२३४ ]
श्रमो महाहियारो
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अर्थ- सप्तम ( महाशुक्र इन्द्रको अभ्यन्तर परिषद् ) में एक हजार ( १०००), सहस्रार ( इन्द्रकी अ० परिषद् ) में पाँच सौ ( ५०० ) और प्रान्तादि ( आनत - प्राणत ) दो इन्द्रोंकी ( अभ्यन्तर परिषद् ) में दो सौ पचास-दो सौ पचास ( २५० • २५० ) देव होते हैं ॥ २३० ॥
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इंदस्स प्रचुबिंदस्स |
अभंतर परिसाए, प्रारण पक्कं सुर पवरा, एक्क सथं पंचवीस जुवं ॥२३१॥
१२५ । १२५ ।
अर्थ - आरण इन्द्र और अच्युत इन्द्रमेंसे प्रत्येक ( की अभ्यन्तर परिषद् ) में एक सौ
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पच्चीस - एक सौ पच्चीस ( १२५ - १२५ ) उत्तम देव होते हैं ||२३१॥
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मझिम -परिसाय सुरा, घोट्स-वारस बसट्ट-व-च- बुंगा । होति सहस्सा फमसो, सोहम्मिवादिएस सत्तेसु ॥ २३२ ॥
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१४.००
१२००० | १०००० | ८००० | ६००० | ४००० | २००० |
अर्थ – सौधर्मादिक सात इन्द्रोंमें से प्रत्येककी मध्यम परिषद् में क्रमश: चौदह हजार, बारह हजार, दस हजार आठ हजार, छह हजार, चार हजार और दो हजार देव होते हैं ||२३२ || एक्क सहल्स - पमाणं, सहस्सया रिवयम्भि पंच - सया ।
उरिम च इदेसु, पत्तेक्कं मक्रिमा परिसा ।। २३३॥
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१००० ५०० | ५०० ५०० | ५००
अर्थ- सहस्रार इन्द्रकी मध्यम परिषद् में एक हजार (१००० ) प्रमाण और उपरितन
चार इन्द्रोंमेंसे प्रत्येकको मध्यम परिषद् में पाँच सौ ( ५०० ) देव होते हैं ।। २३३||
१. व. ब. क. . . जुयणाबो ।
सोलस वोट्स- बारस- दसटु छष्टच वु-दुगेषक य सहस्सा ।
बाहिर र-परिसा कमसो, समिवा चंदा य 'जउ-गामा ॥ २३४ ॥
परिसा समत्ता ||
- उपर्युक्त इन्द्रों के बाह्य पारिषद देव क्रमशः सौलह, चौदह, बारह, दस, माठ, छह,
चार, दो और एक हजार प्रमारण होते हैं । इन तीनों परिषदोंका नाम क्रमशः समित्, चन्द्रा और जतु है ।।२३४||
परिषद्का कथन समाप्त हुआ ।