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________________ ३१० ] तिलोयपण्यत्ती [ गाथा : २६५-२६७ लवणसमहके जलषष्ठ भागकी परिधिका प्रमाणसत्तावीस-सहस्सा, छावा जोयणाणि पण-लखा। परिही लवणमहष्णव - विक्खंभं छह - भागम्मि ॥२६॥ ५२७०४६ । अर्थ-लवण समुद्रके विस्तारके छठे भागमें परिधिका प्रमाण पाच लाख सत्ताईस हजार छयालीस ( ५२७०४६ ) योजन है ।।२६५! विशेषार्थ-जम्बूद्वीपके सूर्य तम और तापके द्वारा लवण-समुद्र के छठे भाग पर्यन्त क्षेत्रको प्रभावित करते हैं । जिसका व्यास इसप्रकार है लवरणसमुद्रका बलय व्यास दो लाख योजन है । इसके दोनों पार्श्वभागोंका छठा भाग ( २००५०x२)=६६६६६० योजन हुआ । इसमें जम्बूद्वीपका व्यास जोड़ देनेपर जलषष्ठ भागका व्यास ( १०००००+६६६६६७) १६६६६६३ योजन होता है । जिसकी परिधि {१६६६६६ )२४१०=५२७०४६ योजन प्राप्त होती है। यहाँ जो शेष बचे, वे छोड़ दिये गये हैं। समान कालमें विसदृश प्रमाणवाली परिधियोंका भ्रमण पूर्ण कर सकनेका कारण रवि-चिंबा सिग्घ-गदी, णिग्गच्छंता हवंति पविसंता। मंद - गदी असमारणा, परिही साहति सम - काले ॥२६६।। अर्थ- सूर्यबिम्ब बाहर निकलते हुए शोघ्रगतिबाले और प्रवेश करते हुए मन्दगतिवाले होते हैं, इसलिए ये समान कालमें भी असमान परिधियों को सिद्ध करते हैं ॥२६६॥ सूर्य के कुल गगनखण्डों का प्रमाणएक्कं चेवय लक्खं, णवय-सहस्साणि अड-सयाणं पि । परिहोणं पयंगका, कादब्बा' गयण - खंडाणि ॥२६॥ १०९८०० अर्थ-इन परिधियोंमें ( दोनों) सूर्योके ( सर्व ) गगनखण्डोंका प्रमाण एक लाख नौ हजार प्राय सी ( १०९८०० ) है ।।२६७।। १. द. ब. क्र.ज. कालं वा।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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