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________________ १४६ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २८२ अर्थ - पुनः श्रावली असंख्यातवें भागसे गुरिणत प्रतरांगुलका जगत्प्रतरमें भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसका पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव राशिका प्रमारण होता है || विशेषार्थ या या पमाणं होदि या 11 होती है | सम्मि = प रि *x* प रि पृथिवीका बादर पर्याप्त राशि: या = ४ प रि = या - ४ प रि जगत्प्रतर प्रा० अस० रि x बादर पृथिवीका पर्याप्त जीवोंका प्रमाण । ४ प प्र० x अर्थ - इसे आवली के अस ख्यातवें भागसे गुग्गित करनेपर बादर जलकायिक पर्याप्त जीवराशिका प्रमाण होता है । विशेषार्थ - जलका बादर पर्याप्त राशि पस्य ० अस बलियाए प्रसंखेज्जदि-भागेण गुणिदेहि बाबर - आउ-पज्नत्त- रासि - F X या र जलकायिक बादर पर्याप्त राशिका प्रमाण । पुणो घणावलिस्स प्रसंखेज्जदि भागे बाबर - तेउ-पज्जत- जीव- परिमाणं होदि पृथिवी० बादर पर्याप्त x आवली ० अस ं ० अर्थ - पुनः घनावली के अस ख्यातवें भाग-प्रमाण बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीव राशि
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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