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माषा: ५३२-५३५ ] सत्तमो महाहियारो
[ ३६५ श्रावृत्ति और विषुपके नक्षत्र प्राप्त करनेकी विधिसत्त-गुणे ऊणक, वस-हिद-सैसेसु भयणदिवस-गुणं ।
ससट्ठि - हिदे लद्ध, अभिजादीवे हवे रिवखं ।।५३२॥ प्रर्थ-एक कम विवक्षित आवृत्तिको सातसे गुरिणत करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसे दससे भाजित कर शेषको अयन-दिवस (१८४) से गुणित कर सड़सठ (६७) का भाग देना चाहिए। जो लब्ध प्राप्त हो उसे अभिजित् नक्षत्रसे गिननेपर गत नक्षत्र प्राप्त होता है, अतः उससे आगेका नक्षत्र प्रावृत्तिका नक्षत्र होता है ॥५३२॥
विशेषार्थ--यहाँ ८ वी आवृत्ति विवक्षित है। इसका मूल नक्षत्र है। (८ - १)x ७-४६ । ४६ १०-४, शेष रहे ९ । ( ९x१८४ ):६७-२४, यहाँ शेष आधेसे अधिक हैं मतः ( २४ + १)-२५ प्राप्त हुए । अभिजित् नक्षत्रसे गिननेपर २५ वां ज्येष्ठा नक्षत्र गत और उससे प्रागेका मूल न० ८ वी प्रावृत्तिका नक्षत्र प्राप्त होता है।
युगकी पूर्णता एवं उसके प्रारम्भको तिथि प्रौर दिन आदिआसाढ-पुण्णमीए, जुग-णिप्पत्ती साचणे किण्हे ।
अभिजिम्मि चंद-जोगे, पाडिव-दिवसम्मि पारंभो ॥५३३॥ अर्थ-आषाढ़ मासकी पूर्णिमाके दिन (अपराल में ) पञ्चवर्षात्मक युगको समाप्ति होती है और श्रावण कृष्णा प्रतिपद्के दिन अभिजित् नक्षत्रके साथ चन्द्रका योग होनेपर उस युगका प्रारम्भ होता है । ( दक्षिणायन सूर्य की प्रथम प्रावृत्तिका प्रारम्भ भी यही है ) ॥५३३।।
दक्षिणायन सूर्य की द्वितीय और तृतीय-आवृत्तिसावरण-किण्हे तेरसि, मियसिर-रिक्खम्मि बिदिय-प्राउट्टी।
तदिया विसाह - रिक्खे, वसमीए सुक्कलम्मि तम्मासे ॥५३४॥ अर्थ-श्रावण कृष्णा त्रयोदशीके दिन मृगशीर्षा नक्षत्रका योग होनेपर द्वितीय और इसी मासमें शुक्लपक्षकी दसमीके दिन विशाखा नक्षत्रका योग होनेपर तृतीय आवृत्ति होती है ॥५३४॥
चतुर्थ और पंचम प्रावृत्ति-- सावण-किण्हे ससमि, रेवदि रिक्खे चउट्टियाविती । चोत्तीए पंचमिया, सुक्के रिक्खाए पुधफग्गुणिए ॥५३॥