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गाथा । ६१८ ] सत्तमो महाहियारो
[ ४३५ 'जतियारिण बीव - सायर - रूवाणि अंबतीय - च्छेदणाणि छ - रूवाहियारिण तत्तियाणि रज्जु-चछेदणाणि' त्ति परियम्मेणं एवं वक्खाणं किं ग विरुझदे ? एदेण सह विज्झवे, किंतु सुत्तेण सह ण विरुज्झवि । तेणेदस्स वक्खाणस्स गहणं कायदवं, ण परियम्मसुचस्स; सुस-विरुद्धत्तादो । ण सुत्त-विरुद्ध वक्खाणं होदि, अविष्पसंगायो । तत्थ जोइसिया गस्थि ति कुदो गयवे ? एवम्हादो चेव सुत्तादो।
अर्थ--मांका-'जितनी द्वीप और समुद्रोंको संख्या है, तथा जितने जम्बूद्वीपके अर्धन्छेद होते हैं, छह अधिक उतने ही राजूके अर्धच्छेद होते हैं' इसप्रकारके परिकर्म-सूत्रके साथ यह व्याख्यान क्यों न विरोधको प्राप्त होगा?
समाधान-यह व्याख्यान परिकर्मसूत्रके साथ विरोधको प्राप्त होगा, किन्तु ( प्रस्तुत ) सूत्र के साथ तो विरोधको प्राप्त नहीं होता है । इसलिए इस व्याख्यानको ग्रहण करना चाहिए, परिकर्मके सूत्रको नहीं । क्योंकि वह सूत्रके विरुद्ध है, और जो सूत्र-विरुद्ध हो, वह व्याख्यान नहीं माना जा सकता है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष प्राप्त होता है ।
शंका-नदी स्वयंभूरमासाद परभाग ) योनिको देव नहीं है, यह कैसे जाना? समाधान-इसी सूत्रसे जाना जाता है।
एसा तप्पासोग्ग-संखेज्ज-रूवारि 'जंबूदीय-छेदणय-सहिद-दीव-सायर-रूवमेसरज्जुच्छेद-पमाण-परिक्खा-विही' ण अण्णाइरिय' - उपदेस - परंपराणुसारिणी, केवलं तु तिलोयपण्णत्ति-सुत्ताणुसारिणी, जोविसियदेव-भागहार-पतुप्पाइय-सुत्तावलंबि-जुत्ति-बलेख पयव-गच्छ-साहपट्टमेसा परूवणा परूविदा । तदो रण एत्थ "इवमिस्थमेवेत्ति एयंतपरिग्गहेण' असग्गहो कायन्बो, परमगुरु-परंपरागप्रोबएसस्स जुचि - बलेण "बिहडाषेवुमसक्कियत्तादो, अविदिएसु पदस्थेसु छचुमत्य-वियप्पाणमविसंवाद-णियमाभावादो। 'तम्हा पुग्याइरिय-वक्खाणापरिच्चाएण' एसा वि दिसा' हेदु-वावाणुसारि-उप्पण्ण-सिस्साणरोहेण अउप्पण्ण-जण-उप्पायणटुं च दरिसेदव्या । तबो ग एत्य "संपवाय - विरोहासंका कायस्वा त्ति ।
१.द. य. दीवत्तोदणय । २. द. ब, क. वीही। ३ द. ब. क. अण्णाहरियाचवदेसपरंपराणुसारिणे । ४. द.प. सुतारणसारि । ५. ६. ब. क. ज. इदमेत्यमेवेत्ति । ६. द. ब. क. ज. परिगहो ण । ७. ६. ब. क. ज. विहदाबेदु । ८. द. ब. क. तहा। ६. द. ब. क. ज. वक्खापरिचाएण। १०. द. क. ज. विधोसा। ११. द. र. क. ज. संपदाए विरोधो ।