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________________ ४३६ ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : ६१८ अर्थ -- तत्प्रायोग्य संख्यात रूपाधिक जम्बूद्वीपके अर्धच्छेदों सहित द्वीप सागरोंकी संख्या प्रमाण राजू सम्बन्धी अर्धच्छेदों के प्रमाणकी परीक्षा - विधि अन्य याचायोंके उपदेशकी परम्पराका अनुसरण करनेवाली नहीं है । यह तो केवल त्रिलोकप्रज्ञप्ति सूत्रका अनुसरण करनेवाली है । ज्योतिषी देवोंके भागहारका प्रत्युत्पादन ( उत्पन्न ) करनेवाले सूत्रका झालम्बन करनेवाली युक्तिके बलसे प्रकृत- गच्छको सिद्ध करने के लिए यह प्ररूपणा की गई है । अतएव यहाँ 'यह ऐसा ही है' इस प्रकारके एकान्तको ग्रहण करके कदाग्रह नहीं करना चाहिए। क्योंकि परमगुरुओंकी परम्परासे श्राये हुए उपदेशको इसप्रकार युक्ति के बलसे विघटित करना अशक्य है। इसके अतिरिक्त अतीन्द्रिय पदार्थों के विषय में अल्पज्ञोंके द्वारा किय गये विकल्पोंके अविसंवादी होनेका नियम भी नहीं है। इसलिए पूर्वाचार्योंके व्याख्यानका परित्याग न कर हेतुवाद ( तर्कवाद ) का अनुसरण करनेवाले व्युत्पन्न शिष्योंके अनुरोधसे तथा अव्युत्पन्न शिष्य-जनों के व्युत्पादनके लिए इस दिशाका दिखाना योग्य ही हैं, श्रतएव यहाँ पर सम्प्रदाय के विरोध की आशंका नहीं करनी चाहिए । विशेषार्थ - ज्योतिषी देवोंकी संख्या निकालने के लिए द्वीप सागरोंकी संख्या निकालना आवश्यक है । परिकर्मके सूत्रानुसार द्वीप समुद्रोंकी संख्या उतनी है जितने छह अधिक जम्बूद्वीप के श्रच्छेद कम राजू के अर्थ च्छेद होत हैं । ( मेरु एवं जम्बूद्वीपादि पाँच द्वीप- समुद्रों में जो राजूके अर्ध च्छेद पढ़ते हैं वे यहाँ सम्मिलित नहीं किये गये हैं, क्योंकि इन द्वीप समुद्रोंकी चन्द्र संख्या पूर्व में कही जा चुकी है } 1 किन्तु तिलोय पण्णत्तीके सूत्रकारका कहना है कि ( २५६ ) के भागहारसे ज्योतिषी देवोंका जो प्रमाण प्राप्त होता है यदि वही प्रमाण इष्ट है तो राजू के अर्ध च्छेदोंमेंसे जम्बूद्वीप के अर्ध च्छेदों के अतिरिक्त छह ही नहीं किन्तु छहसे अधिक संख्यात अंक और कम करना चाहिए । इतना कम करने के बाद ही द्वीप सागरोंकी वह संख्या प्राप्त हो सकेगी जिसके द्वारा ज्योतिषी देवोंका प्रमारण ( २५६ ) * भागहारके बराबर होगा । छह अच्छेदके अतिरिक्त संख्यात अंक और कम करनेका कारण यह दर्शाया गया है। कि स्वयंभूरमणसमुद्रको बाह्य वेदीके श्रागे भी पृथिवीका प्रस्तित्व है; वहीं राजूके श्रच्छेद उपलब्ध होते हैं, किन्तु वहाँ ज्योतिषी देवोंके विमान नहीं हैं । इसप्रकार युक्तिबल से सिद्ध कर देनेके पश्चात् भी ग्रन्थकारको परम निरपेक्षता एवं पूर्ववर्ती श्राचार्योंके प्रति दृढ़ श्रद्धा दर्शनीय है । वे लिखते हैं कि - 'यह ऐसा ही है' इसप्रकार एकान्त इठ "यह दिशा भी दिखानी चाहिए । पकड़कर एण बिहाणेण परुविद - गच्छ विरलिय रूवं पडि चत्तारि रुवाणि दावूण अण्णोष्णभस्थे' कदे किन्तिया जादा इदि वृत्ते संखेज्ज-रूव-गुरिणय े जोयण - लक्खस्स C १. व. ब. क. ज. मंडे । २. द. ब. क. ज. गुणिदे ।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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