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२४६ ] तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : १०-११ विशेषार्थ-मध्यलोक पूर्व-पश्चिम एक राज है । यहाँ वातवलयोंका औसत-प्रमाण १२ योजन है । उपयुक्त गाथा ८ में जो लन्धराशिरूप १०८४ योजन अन्तराल आया है। उसमें से वातवलयके १२ योजन घटा देनेपर ( १०८४- १२) १०७२ योजन शेष रहते हैं। यही वातवलय क्रमशः वृद्धिंगत होते हुए ब्रह्मलोकके समीप ( ७ +५+४)- १६ योजन हैं । इसप्रकार ३२ राजूकी ऊंचाई पर वातवलयोंकी वृद्धि ( १६-१२)=४ योजन है, यह १९०० यो० की ऊँचाई पर आकर बढ़त-बढ़ते असंख्यातवें भाग प्रमाण हो जाएगी। अतएव ग्रन्थकारने संदृष्टिमें १०७२ योजनों में से रूप ( एक अंक ) का असंख्यातवाँ भाग घटाया है ।
दक्षिण-उत्तर दिशामें अन्तरालका प्रमाणतद्दषिखणुसरेसु, स्वस्सासंख - भाग - अहियायो। बारस - जोयण - होणा, पत्तक्क तिण्णि रस्जूश्रो ॥१०॥
: । रिण जो १२ । १ ।
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भेदो समतो ॥२॥ अर्थ-दक्षिण-उत्तर दिशाओं में प्रत्येक ज्योतिषी-बिम्बोंका यह अन्तराल रूपके असंख्यातवें भागने अधिक एवं १२ योजन कम तीन राजू प्रमाण है ।।१०।।
विशेषार्थ-लोक दक्षिणोत्तर ७ राजू विस्तृत ( मोटा ) है और इसके मध्य में प्रस नाली मात्र एक राजू प्रमाण मोटी है, अतः इन दिशाओं में ज्योतिषीदेवोंका स्पर्श वातवलयोंसे नहीं होता अर्थात् स नालीसे वातवलय ३ राजू दूर हैं । पूर्वोक्त गाथानुसार तीन राजूमेंसे वातवलय सम्बन्धी १२ योजन और रूपका असंख्यातवाँ भाग घटाया गया है। संदृष्टिम : का यह चिह्न राजूका है और एक बटा असंख्यातवाँ भागका चिह्न है। अर्थात् ३ राजू – (१२ +8) अन्तर है ।
भेदका कथन समाप्त हुआ ॥२॥
ज्योतिष देवोंको संख्याका निर्देश - भजिदम्मि सेढि-बग्गे, बे-सय-छप्पण्ण-अंगुल-कवीए । जं लद्ध सो रासी, जोइसिय - सुराण सम्वाणं ॥१॥
। ६५५३६ । प्रयं-दो सौ छप्पन अंगुलोंके धर्ग (२५६४२५६-६५५३६ प्रतरांगुलों) का जगच्छ्रेणी के वर्ग ( जगत्प्रतर ) में भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतनी सम्पूर्ण ज्योतिषीदेवोंकी { जगच्छगो२ ६५५६६ ) राशि है ।।११।।