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४२. ]
तिलोयपण्णती
[ गाथा ! ६१८ अर्थ यहाँसे आगे चन्द्रोंको सपरिवार लानेका विधान कहता हूँ। वह इसप्रकार हैजम्बूद्वीपादिक पांच द्वीप-समुद्रोंको छोड़कर तीसरे समुद्रको प्रादि करके स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त इनके लानेकी प्रक्रिया कहते हैं--तृतीय समुद्र में बत्तीस गच्छ, चतुर्थ द्वीपमें चौंसठ गच्छ, और इससे आगेके समुद्रमें एकसी अट्ठाईस गच्छ, इसप्रकार स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त गच्छ दूने-दूने क्रमसे चले जाते हैं।
विशेषार्थ-जम्बूद्वीपादि तीन द्वीप और लवरणसमुद्रादि दो समुद्र इन पाँच द्वीप-समुद्रोंके चन्द्र प्रमाणका निरूपण किया जा चुका है अतः इनको छोड़कर शेष द्वीप-समुद्रोंका गच्छ इस प्रकार है
क्रमांक
समुद्र एवं द्वीप
गच्छ प्रमाण
पुस्करवर समुद्र धारुणिवर द्वीप वारुणिवर समुद्र क्षीरवर द्वीप क्षीरवर समुद्र
२५६
५१२
तदनुसार गच्छको संख्या दूने-दूने क्रमसे स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त वृद्धिंगत होतो जाती है।
तृतीय समुद्रसे अन्तिम समुद्र पर्यन्तकी गुण्यमान राशियां___ संपहि एदेहि गच्छेहि पुध-पुध गुणिज्जमाण-रासि-परूवणा कीरदे-तदियसमुद्दे बे-सयमट्ठासीदि-उवरिम-दौवे तत्तो दुगुणं, एवं दुगुण-गुण-कमेण गुणिज्जमारणरासीओ गच्छंति जाव सयंभूरमणसमुद्द पत्ताओ ति । संपहि अट्ठासीवि-विसदेहि' गुणिज्जमाण-रासीओ प्रोवट्टिय लद्धण सग-सग-गच्छे गुणिय अट्ठासीदि-थे-सदमेव सव्वगच्छाणं गुणिज्जमाणं कावन्वं । एवं कदे सम्बनाच्छा अण्णोण्णं पेविखण चउगुण-कमेण आवट्टी जादा । संपइ घचारि-रूवमादि कादूण 'चदुरुसर-कमेण गव-संकलगाए आणयणे कीरमाणे पुग्विल्ल-गच्छेहितो संपहिय-गच्छा रूऊगा होति, दुगुण-जाक्-ठाणे चत्तारि-रूव
१. द. ब. क. ज. बीसदे। २. द. ब. क. ज. दिवढिय। ३. द. ब. क. ज. पदुत्तर ।