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तिलोयपगत्ती
[ गाथा : १३१-१३६ अर्थ- बहु-रत्न-कृत शोभा युक्त यह कुण्डलपर्वत मानुषोत्तर-पर्वत सदृश विस्तार-वाला, बयालीस हजार योजन ऊँचा और एक हजार योजनप्रमाग्ग अवगाह सहित है ।। १३० ।।
कडाणं ताई चिय, गामाणं माणुसत्तर-गिरिस्स । फूडोहि सरिछाश, कमि सुरा यो लामा ॥१३१।। पुब्ध-दिसाए विसिट्ठी, पंचसिरो महसिरो महाबाहू । पउमो पउमुसर-महपउमो दक्षिण दिसाए वासुगिओ॥१३२।। थिरहिवय-महाहिदया, सिरियच्छो' सस्थिओय पच्छिमको ।
सुन्दर - विसालणेत्तं, पांडुर • पुडरय उत्सरए ॥१३३।। अर्थ-मानुषोत्तर पर्वतके कूटोंके सदृश इस पर्वतपर स्थित कूटोंके नाम तो वही हैं किन्तु देवोंके नाम इसप्रकार हैं-पूर्व दिशामें विशिष्ट ( त्रिशिर ), पंचशिर, महाशिर और महाबाहु; दक्षिण-दिशामें पय, पद्मोत्तर, महापद्य और वासुकि पश्चिममें स्थिरहृदय, महाहृदय, श्रीवृक्ष और स्वस्तिक तथा उत्तरमें सुन्दर, विशालनेत्र, पाण्डुर और पुण्डरक, ये सोलह देव उपर्युक्त क्रमसे उन कूटोंपर स्थित हैं ।। १३१-१३३ ।।
एक्क-पलिबोयमाऊ, वर-रयण-विभूसिपंग-रमणिज्जा।
बहु - परिवारहि जुदा, ते देवा होति गागिंवा ॥१३४॥ अर्थ-एक पल्यप्रमाण आयुवाले वे नागेन्द्रदेव उत्तम रत्नोंसे विभूषित शरीरसे रमणीय और बहुत परिवारोंसे युक्त होते हैं ॥ १३४ ।।
बहुविह-देवोहिं जुदा, कूडोवरिमेसु तेसु भवणेस।
णिय-णिय-विभूदि-जोग्ग, सोक्षं भुजति बहु-भयं ॥१३५॥ अर्थ-ये देव बहुत प्रकारकी देवियोंसे युक्त होकर कूटोपर स्थित उन भवनों में अपनीअपनी विभूतिके योग्य बहुत प्रकारके सुख भोगते हैं ।। १३५ ।।
पुवावर-दिम्भायं, ठिवाण कूडारण अग्ग-भूमीए ।
एक्केक्का वर-कूडा, तड-वेदी-पहुदि-परियरिया ॥१३६।। अर्थ-पूर्वापर दिग्भागमें स्थित कूटोंको अग्रभूमिमें तट-वेदी प्रादिकसे झ्याप्त एक-एक श्रेष्ठ कूट है ।। १३६ ॥
१. द. व. म. ज. सिरिवंतो सच्छियो। २. द.प. क. ज. इंटरपश्य ।