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तिलोयपण्णत्तो
[ गाथा : ३१०-३१३ तिर्यंचोंमें सम्यक्त्व ग्रहणके कारणकेइ पडिबोहणेण य, केइ सहावेण तासु भूमोसु। बठ्ठणं सुह - दुक्खं, केइ तिरिक्खा बहु-पयारा ।।३१०॥ जादि-भरणेण केई, केइ जिरिणदस्स महिम-वंसणदो। जिबिब-दंसणेण य, पढमुवसम' वेदगं च गेहति ॥३११॥
सम्मन-गहणं गवं ॥१३॥ अर्थ --उन भूमियोंमें कितने ही सिर्यच भी विरोध और कितने ही स्वभावसे भी प्रथमोपशम एवं वेदक सम्यक्त्वको ग्रहण करते हैं । इसके अतिरिक्त बहुत प्रकारके तिर्यंचोंमेंसे कितने ही सुख-दुःखको देखकर, कितने ही जातिस्मरणसे, कितने ही जिनेन्द्र महिमाके दर्शनसे और कितने ही जिनबिम्बके दर्शनसे प्रथमोपशम एवं वेदक सम्यक्त्वको ग्रहण करते हैं ।।३१०-३११।।
इसप्रकार सम्यक्त्व ग्रहणका कथन समाप्त हुआ ।।१३।।
तिथंच जीवों की गति-आगतिपुढवि-प्पहदि-वणप्फदि-अंतं वियला य कम्म-गर-तिरिए ।
ण लहंति तेउ - वाउ, मणुवाउ अणंतरे जम्भे ॥३१२॥ अभ-पृथिवीको प्रादि लेकर वनस्पतिकायिक पर्यन्त स्थावर और विकलेन्द्रिय जीव कर्मभमिज मनुष्य एवं तिर्यचोंमें उत्पन्न होते हैं । परन्तु विशेष इतना है कि तेजस्कायिक और वायकायिक जीव अनन्तर जन्ममें मनुष्यायु नहीं पाते हैं ।।३१२॥
बत्तीस-भेव-तिरिया, ण होंति कहयाइ भोग-सुर-णिरए।
सेढिघणमेत - लोए, सच्चे अक्खेसु जायंति ॥३१३॥
अर्थ-बत्तीस प्रकारके तिर्यच जीव, भोगभूमिमें तथा देव और नारकियोंमें कदापि उत्पन्न नहीं होते । शेष जीव श्रेणीके धनप्रमाण लोकमें सर्वत्र ( कहीं भी ) उत्पन्न होते हैं ॥३१३।।
विशेषार्थ'-गाथा २८२ में तिथंच जीवोंके ३४ भेद कहे हैं इनमें से संज्ञी पर्याप्त और असंझी पर्याप्त ( जीवों ) को छोड़कर शेष ३२ प्रकारके तिर्यच जीव भोगभूमिमें तथा देव और नारकियों में कदापि उत्पन्न नहीं होते ।
१. द. ब. क.ज. पढमुवसमें।