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गाथा : ३०५-३०६ ] पंचमो महाहियारो
[ १७१ सध्वेसु वि भोगभुवे, दो गुणठाणाणि थोषकालम्मि !
दीसंति चउ-वियप्पं, सच्च-मिलिच्छम्मि' मिच्छत्तं ॥३०५॥
अर्थ सर्व भोगभूमियोंमें दो ( मिथ्यात्व और अविरत स. ) गुणस्थान और स्तोककालके लिए चार गुणस्थान देखे जाते हैं। सब म्लेच्छ खण्डोंमें एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है ।।३०५॥
जीवसमास आदिका वर्णनपज्जत्तापज्जत्सा, जीवसमासाणि सयल-जीवाणं ।
पज्जत्ति - अपज्जत्ती, पाणाम्रो होति णिस्सेसा ॥३०६।।
प्रर्ष सम्पूर्ण जीवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों जीव-समास, पर्याप्ति एवं अपर्याप्ति तथा सब ही प्रारण होते हैं ॥३०६॥
घउ-सण्णा तिरिय-गवी, सयलाओ इंदियाम्रो छपकाया। एक्कारस जोगा तिय - येवा कोहादिय - कसाया ॥३०७॥ छग्णाणा वो संजम, तिय-दसण वव्व-भावदो लेस्सा । छच्चेव य भविय - दुगं छस्सम्मत्तेहिं संजुत्ता ॥३०८।। सण्णि-असण्णी होलि हु, ते पाहारा तहा प्रणाहारा। णाणोघजोग - सण • उवजोग - जुदाणि ते सध्ये ॥३०६।।
एवं गुणठाणादि-समत्ता ॥१२॥ अर्थ सब तिर्यंच जीवोंके चारों संज्ञाएँ, तिर्यंचगति, समस्त इन्द्रियाँ, छहों काय, ग्यारह योग ( वैऋियिक, वैऋियिकमिश्र, प्राहारक और आहारक मिश्रको छोड़कर ), तीनों वेद, क्रोधादिक चारों कषाय, छह ज्ञान ( ३ ज्ञान, ३ प्रज्ञान ), दो संयम ( असयम एवं देशसंयम ), केवलदर्शनको छोड़कर शेष तीन दर्शन, द्रध्य और भावरूपसे छहों लेश्याएं, भव्यत्व-अभन्यत्व और छहों सम्यक्त्व होते हैं । ये सब तिथंच संज्ञी एवं प्रसंज्ञो, पाहारक एवं अनाहारक तथा ज्ञान एवं दर्शनरूप दोनों उपयोगों सहित होते हैं ।।३०७-३०६ ।।
इसप्रकार गुणस्थानादिका कथन समाप्त हुआ ।।१२।।
१.व.क. मेलम्चम्मि । २.ब. सव्य ।