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गाथा : ३१४-३१६ ] पंचमो महाहियारो
[ १७३ पढम-धरंतमतण्णी, भवतिए सयल-कम्म-गर-सिरिए।
सेबिघणमेत्त - लोए, सन्चे अक्खेसु जायंति ॥३१४॥ अर्थ- असंज्ञीजीव प्रथम पृथिवीके नरकोंमें, भवनत्रिक में और ममस्त कर्मभूमियोंके मनुष्यों एवं तिर्यंचोंमें उत्पन्न होते हैं । ये सब थे गोको घनप्रमाण लोकमें कहीं भी पैदा होते हैं ।।३१४।।
संखेज्जाउव-सणी, सदर-सहस्सारो त्ति जायति ।
णर-तिरिए णिरएसु, वि संखातीदाउ जाव ईसाणं ॥३१५॥ अर्थ-स'ख्यातवर्षकी प्रायुबाले सज्ञी तिर्यच जीव शतार सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त ( देवोंमें ) तथा मनुष्य, तिर्यंच और नारकियों में भी उत्पन्न होते हैं। परन्तु असंख्यातवर्ष की आयुवाले संजी जीव ईशान कल्प पर्यन्त ही उत्पन्न होते हैं ।।३१५।।
चोत्तीस-मेद-संजुद-तिरिया हु अणंतरम्मि जम्मम्मि । ण हुँति सलाग - रणरा, भजणिज्जा णिवुदि-पवेसे ॥३१६।।
एवं संकमणं गई ॥१४॥ अर्थ--चौंतीस भेदोंसे संयुक्त तिर्यंच जीव निश्चय ही अनन्तर जन्म में शलाका-परुष नहीं होते । परन्तु मुक्ति-प्रवेशमें ये भजनीय हैं । अर्थात् अनन्तर जन्ममें ये कदाचित् मुक्ति भी प्राप्त कर सकते हैं ।।३१६।।
इसप्रकार संक्रमणका कथन समाप्त हुआ।१४।।
तिर्यंच जीवोंके प्रमाएका चौंतीस पदोंमें अल्पबहुत्व--- एतो चोसीस-पदमप्पबहुलं वत्तइस्लामो । तं जहा–सन्वत्थोवा तेउकाइयबादर-पज्जत्ता। रि। पंचेंदिय - तिरिक्ख - सण्णि - अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा
।४। ६५५३६ । ७।७।। सण्णि-पज्जत्ता संखेज्जगुणा । ४ । ६५५३६ । ७ । ।। चरिदिय-पज्जत्ता संखेज्जगुणा: । पंचेविय-तिरिक्खा असगिणपज्जता विसेसाहिया ।। १५ । रिण रासि ३ । ६५५३६ ।
- २ मू । । । । । ६५५३६ ॥ ५ ॥ बोइदिय-पज्जत्ता विसेसाहिया ।। ६३.९ । सोइ दिय-पज्जत्ता विसेसाहि । । चरिदिय-असणिण-अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा