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गाथा : ६०-६१ ] पंचमो महायिारो
[ २२९ व्यन्तरदंवोंके नगरोंके आश्रयरूप द्वीपोंका निरूपणताण णय राणि अंजणक-वज्जधातुक-सुवण्ण-मणिसिलका ।
दीवे वज्जे रजदे, हिंगुलके होंति हरिदाले ॥६०।।
प्रर्थ - उन व्यन्तरदेवों के नगर अंजनक, वज्रधातुक, सुवर्ण मन:शिलक, बन, रजत, हिंगुलक और हरिताल द्वोपमें स्थित हैं ।। ६० ।।
नगरोंके नाम एवं उनका अवस्थानणिय-णामक मझे, पह-कंतावत्त-मज्झ-णामारिंग ।
पुन्वादिसु इवाणं, सम-भागे पंच पंच जयरारिंग ॥१॥ अर्थ-सम-भागमें इन्द्रोंके पांच-पांच नगर होते हैं। उनमें अपने नामसे अंकित नगर मध्य में और प्रभ कान्त, पावर्त एवं मध्य, इन नामोंसे अंकित नगर पूर्यादिक दिशाओंमें होते हैं ।।६।।
विशेषार्थ-व्यन्तरदेवोंके नगर समतल भूमिपर बने हुए हैं ; भूमिके नोचे या पर्वत आदिके ऊपर नहीं हैं। प्रत्येक इन्द्र के पांच-पांच नगर होते हैं । मध्यका नगर इन्द्र के नामवाला ही होता है तथा पूर्वादि दिशाओंके नगरोंके नाम इन्द्र के नामके आगे क्रमश: प्रभ, कान्त, आवर्त और मध्य जुड़कर बनते हैं । यथा--
इन्द्र-नाम
मध्य-नगर
पूर्वदिशामें दक्षिण दिशामें पश्चिम दिशा में | उत्तर दिशामें
किम्पुरुष किन्नर
| किम्पुरुषनगर किम्पुरुषप्रभ | किम्पुरुषकान्त किम्पुरुषावर्त |किम्मुरुषमध्य | किन्नरनगर | किन्नरप्रभ । किन्नरकान्त | किन्नरावर्त किन्नरमध्य | सस्पुरुषनगर | सत्पुरुषप्रभ | सत्पुरुषकान्त | सत्पुरुषावर्त सत्पुरुषमध्य महापुरुषनगर महापुरुषप्रभ महापुरुषकान्त महापुरुषावर्त | महापुरुषमध्य
सत्पुरुष
महापुरुष
इसीप्रकार शेष बारह इन्द्रोंके नगर भी जानने चाहिए ।
पाठों द्वोपोंमें इन्द्रोंका निवास-विभागअंबूदीव-सरिच्छा, दक्षिण-इदा य वविखणे भागे । उत्तर - भागे उत्तर - इंवा णं तेसु वीवेसु॥२॥