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तिलोयपात्ती
[ गाथा : ६३-६५ प्रर्य-जम्बूद्वीप सदृश उन द्वीपोंमें दक्षिण-इन्द्र दक्षिण भागमें और उत्तर इन्द्र उत्तर भागमें निवास करते हैं ॥२॥
विशेषार्थ-- अञ्जनकद्वीपकी दक्षिण दिशा में किम्पुरुष और उत्तर दिशामें किन्नर इन्द्र रहता है । वज्रधातुकद्वीपको दक्षिण दिशामें सत्पुरुष और उत्तर दिशामें महापुरुष इन्द्र रहता है। सुवर्णद्वीपकी दक्षिण दिशामें महाकाय और उत्तरदिशामें अतिकाय इन्द्र रहता है। मनःशिलकद्वीपको दक्षिण दिशामें गीतरति और उत्तरदिशामें गीतयश इन्द्र रहता है । वनद्वीपको दक्षिण दिशामें माणिभद्र और उत्तर दिशामें पूर्णभद्र इन्द्र रहता है । रजतद्वीपको दक्षिण दिशामें भीम और उत्तरदिशामें महाभीम इन्द्र रहता है । हिगुलकद्वीपकी दक्षिण दिशामें स्वरूप और उत्तर दिशामें प्रतिरूप इन्द्र रहता है । हरिताल द्वीपकी दक्षिण दिशामें काल और उत्तरदिशामें महाकाल इन्द्र रहता है।
व्यन्त रदेवोंके नगरोंका वर्णनसमचउरस्स ठिदीणं, पायारा तप्पुराण कणयमया ।
विजयसुर-णयर-वगिव-पायार-चउस्थ-भाग-समा ॥६॥
पर्ष-समचतुष्करूपसे स्थित उन पुरोंके स्वर्णमय कोट विजयदेवके नगरके वर्णनमें कहे गये कोटके चतुर्थ भाग प्रमाण है ॥६३।।
विशेषार्थ--अधिकार ५ गाथा १८३-१८४ में विजयदेवके नगर-कोटका प्रमाण ३७१ योजन ऊँचा, ३ योजन अवगाह, १२३ योजन भूविस्तार और ६४ योजन मुख विस्तार कहा गया है। यहां व्यन्तरदेवोंके नगर-कोटोका प्रमाण इसका चतुर्थ भाग है । अर्थात् ये कोट ९३ यो० ऊँचे, ३ योजन प्रवगाह, ३६ यो० भूविस्तार और १५ यो० मुख-विस्तारवाले हैं।
ते णयराणं बाहिर, असोय-समच्छवाण वणसंडा ।
चंपय - चूदाण' तहा, पुवादि - विसासु पत्तेक्कं ॥६४।।
अर्थ-उन नगरोंके बाहर पूर्वादिक दिशानों से प्रत्येक दिशामें अशोक, सप्तच्छद, चम्पक तथा आम्र-वृक्षोंके वनसमूह स्थित हैं ।।६।।
जोयण-लक्खायामा, पण्णास-सहस्स-व-संजुत्ता । ते धणसंडा बहुविह - विदय - विभूवीहि रेहति ॥६५॥
.- ... - .... - १.६.क. ज, भूदाण ।