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गाथा : ६६-७० ]
पंचमो महायिारो अर्थ-एक लाख योजन लम्बे और पचास हजार योजन प्रमाण विस्तार युक्त वे वन-समूह बहुत प्रकारकी विटप ( वृक्ष ) विभूतिसे सुशोभित होते हैं अर्थात् अनेकानेक प्रकारके वृक्ष वहाँ और भी हैं ॥६५||
रपयरेसु तेसु विवा, पासावा करण्य-रजद-रयणमया
उच्छेहादिसु सेसु, उवएसो संपइ पणट्ठो ॥६६।। अर्थ-उन नगरोंमें सुवर्ण, चाँदी एवं रत्नमय जो दिव्य प्रासाद हैं। उनकी ऊंचाई प्रादिका उपदेश इससमर नष्ट हो गया है ।।६६।।।
व्यन्तरेन्द्रों के परिवार देवोंकी प्ररूपणाएनेसु वेतरिदा, कोडते बहु - विभूति • भंगोहि ।
णाणा-परिवार-जुदा, भरिणमो परिवार-णामाई ॥६७।।
अर्थ-इन नगरोंमें नाना परिवारसे संयुक्त व्यन्तरेन्द्र प्रचुर ऐश्वर्य पूर्वक क्रीड़ा करते हैं। (अब) उनके परिवारके नाम कहता हूँ ॥६७।।
पडिइंदा सामाणिय, तणुरक्खा होति तिणि परिसायो।
सत्ताणीय - पइण्णा, अभियोगा ताण पत्तेयं ।।६।। प्रयं-उन इन्द्रों मेंसे प्रत्येकके प्रतीन्द्र, सामानिक, तनुरक्ष, तीनों पारिषद, सात अनीक, प्रकीर्णक और आभियोग्य, इसप्रकार ये परिवार देव होते हैं ।।६।।
प्रतीन्द्र एवं सामानिकादि देवोंके प्रमाणएक्केको पडिइंदो, एक्केक्कारणं हवेदि इंदाणं । चत्तारि सहस्सारिंग, सामाणिय - णाम - देवारणं ॥६६॥
१ । सा ४०००। अर्थ-प्रत्येक इन्द्र के एक-एक प्रतीन्द्र और चार-चार हजार ६४००० --- ४०००) सामानिक देव होते हैं ।।६९।।
एक्केक्कस्सि इदे, तणुरक्खाणं पि सोलस-सहस्सा । अट्ठ-वह - बारस - कमा, तिप्परिसासु सहस्साणि ॥७०॥
१६००० । ८००० । १०००० । १२००० ।