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________________ गाथा : १६१ - १६५ ] पंचमो महाहियारो [ ३९ अर्थ - पूर्वोक्त कूटोंके ही सदृश चार महाकूट इन देवियोंके कूटोंके अभ्यन्तर भाग चार दिशाओं में स्थित हैं । ये नित्योद्योत विमल नित्यालोक और स्वयंप्रभ नामक चारों कूट क्रमश: उत्तर पूर्व, दक्षिण और पश्चिम दिशामें स्थित हैं ।। १५९-१६० ।। सोदामिणि त्ति कणया, सदहद देवी य कणय चित्ते त्ति । उज्जवकारिणीओ, दिसासु जिण जम्मकल्लाणे ।।१६१।। अर्थ - - इन कूटोंपर स्थित होती हुई सौदामिनी, कनका, शतह्रदा और कनकचित्रा, ये चार देखि जिन जपना निमंत्र दिया करती हैं ।। १६१ ।। लक्कूड अंतरए, कूडा पुग्वृत्त-कूड सारिच्छा थेरुलिय- रुचक-मणि-रज्जउत्तमा' पुत्र-पहुदीसु ॥ १६२॥ - अर्थ- इन कूटोंके अभ्यन्तरभाग में पूर्वोक्त कूटोंके सदृश बंडूर्य, रुचक, मरिण और राज्योनम नामक चार कूट पूर्वादिक दिशाओं में स्थित हैं ।। १६२ ।। तेसु' पि दिसाकरणा, वसंति रुचका तहा रुचककित्ती । रुचकादी- कंत पहा, जति जिण जातकम्माणि ॥ १६३ ॥ - श्रयं - उन कूटोंपर भी रुचका, रुचककति रुचककांता और रुचकप्रचा दिक्कन्याएँ निवास करती हैं । ये कन्याएं जिन भगवान्का जातकर्म करती हैं ।। १६३ ।। पल्ल - पमाणाउ-ठिदी, पत्तेक्कं होडि सयल देवीणं । सिरि-देवीए सरिच्छा, परिवारा ताण पादव्वा ।। १६४ ।। चार अर्थ- - उन सब देवियों में प्रत्येकको आयु एक पल्य- प्रमारा होती है। उनके परिवार श्रीदेवी के परिवार सहश जानने चाहिए ।। १६४ ।। सिद्धकूटोंका अवस्थान तक्कभंतरए, चत्तारि हवंति सिद्ध कूडाणि । पुण्य-समाणं रिगसह द्विद-जिण - घर - सरिस - जिण णिकेदाणि ।। १६५ ।। २ अर्थ --इन कूटोंके अभ्यन्तर भाग में चार सिद्ध-कूट हैं, जिनपर पहले के सदृश निषेध - पर्वतस्य जिन भवनों के समान जिन मन्दिर विद्यमान हैं ।। १६५ ।। १. द. ब. क. ज. रजउत्तमपरमस्स हुदीसु । २. द. ब. क. ज. पुरजिए ।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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